ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 78/ मन्त्र 1
अश्वि॑ना॒वेह ग॑च्छतं॒ नास॑त्या॒ मा वि वे॑नतम्। हं॒सावि॑व पतत॒मा सु॒ताँ उप॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअश्वि॑नौ । आ । इ॒ह । ग॒च्छ॒त॒म् । नास॑त्या । मा । वि । वे॒न॒त॒म् । हं॒सौऽइ॑व । प॒त॒त॒म् । आ । सु॒तान् । उप॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्विनावेह गच्छतं नासत्या मा वि वेनतम्। हंसाविव पततमा सुताँ उप ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअश्विनौ। आ। इह। गच्छतम्। नासत्या। मा। वि। वेनतम। हंसौऽइव। पततम्। आ। सुतान्। उप ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 78; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
विषय - हंसौ इव
पदार्थ -
[१] (अश्विनौ) = हे प्राणापानो ! (इह) = यहाँ हमारे जीवन में (आगच्छतम्) = तुम आओ। हम सदा आपकी आराधना करनेवाले हों। हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो! आप (मा विवेनतम्) = अपगत कामनावाले मत होवो। हमारे प्रति आपका प्रेम बना रहे। हमें सदा प्राणायाम की रुचि प्राप्त हो । [२] हे प्राणापानो! (हंसौ इव) = हंसों की तरह (सुतान् उप) = उत्पन्न हुए हुए सोमों के प्रति (आपततम्) = तुम सर्वथा प्राप्त होवो। 'हन्ति पापमानं इति हंस: ' पाप को नष्ट करनेवाला 'हंस' है। ये प्राणापान हंस हैं। पापों को नष्ट करनेवाले हैं। वासनाओं को विनष्ट करके, सब असत्यों को दूर करके आप शरीर में उत्पन्न सोमों का रक्षण करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम सदा प्राणायाम की रुचिवाले हों। ये प्राणापान सब असत्यों व पापों को दूर करके शरीर में सोमों का रक्षण करनेवाले हों ।
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