ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 80/ मन्त्र 1
द्यु॒तद्या॑मानं बृह॒तीमृ॒तेन॑ ऋ॒ताव॑रीमरु॒णप्सुं॑ विभा॒तीम्। दे॒वीमु॒षसं॒ स्व॑रा॒वह॑न्तीं॒ प्रति॒ विप्रा॑सो म॒तिभि॑र्जरन्ते ॥१॥
स्वर सहित पद पाठद्यु॒तऽद्या॑मानम् । बृ॒ह॒तीम् । ऋ॒तेन॑ । ऋ॒तऽव॑रीम् । अ॒रु॒णऽप्सु॑म् । वि॒ऽभा॒तीम् । दे॒वीम् । उ॒षस॑म् । स्वः॑ । आ॒ऽवह॑न्तीम् । प्रति॑ । विप्रा॑सः । म॒तिऽभिः॑ । ज॒र॒न्ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्युतद्यामानं बृहतीमृतेन ऋतावरीमरुणप्सुं विभातीम्। देवीमुषसं स्वरावहन्तीं प्रति विप्रासो मतिभिर्जरन्ते ॥१॥
स्वर रहित पद पाठद्युतत्ऽयामानम्। बृहतीम्। ऋतेन। ऋतऽवरीम्। अरुणऽप्सुम्। विऽभातीम्। देवीम्। उषसम्। स्वः। आऽवहन्तीम्। प्रति। विप्रासः। मतिऽभिः। जरन्ते ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 80; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
विषय - सत्य-तेजस्विता - प्रकाश
पदार्थ -
[१] (विप्रासः) = अपने जीवन का विशेषरूप से पूरण करनेवाले ज्ञानी पुरुष (मतिभिः) = मननपूर्वक की गई स्तुतियों से (स्वः आवहन्तीम्) = प्रकाश को प्राप्त कराती हुई, (देवीम्) = दिव्यगुणों को जन्म देनेवाली (उषसम्) = उषा को (प्रतिजरन्ते) = प्रतिदिन स्तुत करते हैं। प्रातः प्रबुद्ध होकर किया जानेवाला प्रभुलवन हमें प्रकाश व दिव्यगुणों को प्राप्त कराता है । [२] ये विप्र उस उषा का स्तवन करते हैं जो (द्युतद् यामानम्) = देदीप्यमान रथवाली है, (बृहतीम्) = वृद्धि का कारण बनती है, (ऋतेन ऋतावरीम्) = यज्ञादि उत्तम कर्मों से जीवन को ऋतमय बनानेवाली है, (अरुणप्सुम्) = तेजस्वीरूपवाली है और (विभातीम्) = प्रकाशमयी है । यह उषा हमारे शरीर-रथों को दीप्त बनाती है, शक्तियों का वर्धन करती है, हमें ऋतमय तेजस्वी व प्रकाशमय करती है। उषा में जागरण से मन में ऋत, शरीर में तेजस्विता व मस्तिष्क में प्रकाश प्राप्त होता है ।
भावार्थ - भावार्थ- ज्ञानी पुरुष प्रतिदिन उषा में जागरित होकर प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त होते हैं। यह उषा उन्हें सत्यमनवाला, तेजस्वी शरीरवाला व दीप्त मस्तिष्कवाला बनाती है।
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