ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 81/ मन्त्र 1
यु॒ञ्जते॒ मन॑ उ॒त यु॑ञ्जते॒ धियो॒ विप्रा॒ विप्र॑स्य बृह॒तो वि॑प॒श्चितः॑। वि होत्रा॑ दधे वयुना॒विदेक॒ इन्म॒ही दे॒वस्य॑ सवि॒तुः परि॑ष्टुतिः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जते॑ । मनः॑ । उ॒त । यु॒ञ्जते॑ । धियः॑ । विप्राः॑ । विप्र॑स्य । बृ॒ह॒तः । वि॒पः॒ऽचितः॑ । वि । होत्राः॑ । द॒धे॒ । व॒यु॒न॒ऽवित् । एकः॑ । इत् । म॒ही । दे॒वस्य॑ । स॒वि॒तुः । परि॑ऽस्तुतिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जते मन उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चितः। वि होत्रा दधे वयुनाविदेक इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुतिः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जते। मनः। उत। युञ्जते। धियः। विप्राः। विप्रस्य। बृहतः। विपःऽचितः। वि। होत्राः। दधे। वयुनऽवित्। एकः। इत्। मही। देवस्य। सवितुः। परिऽस्तुतिः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 81; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु में मन व बुद्धि को अर्पित करना
पदार्थ -
[१] प्रकृति के दृष्टिकोण से प्रभु सविता इसलिए हैं कि सारे संसार को जन्म देते हैं और जीव के दृष्टिकोण से सविता इसलिए हैं कि हृदयस्थरूपेण उसे प्रेरणा दे रहे हैं । 'षू' धातु के दोनों ही अर्थ हैं [क] उत्पन्न करना, [ख] प्रेरणा देना । (विप्राः) = ज्ञानी पुरुष उस (बृहतः) = महान् (विप्रस्य) = सबका पूरण करनेवाले (विपश्चित:) = ज्ञानी [सर्वज्ञ] प्रभु के प्रति (मनः) = अपने मन को युञ्जते लगाते हैं, (उत) = और (धियः) = अपनी बुद्धियों को भी (युञ्जते) = उसमें ही लगाते हैं। उस प्रभु में ही अर्पित मन व बुद्धिवाले होते हैं । प्रभु प्राप्ति की ही प्रबल कामना करते हैं और प्रभु की ही महिमा का विचार करते हैं। [२] वह (वयुनावित्) = सब प्रज्ञानों को जाननेवाला (एकः) = अद्वितीय प्रभु ही (होत्रा:) = सब वाणियों को, इन वेदरूप ज्ञानवाणियों को (विदधे) = 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' आदि ऋषियों के हृदय में स्थापित करते हैं । (इत्) = वस्तुतः (देवस्य) = उस प्रकाशमय (सवितुः) = निर्माता व प्रेरक प्रभु की (परिष्टुतिः) = सर्वत्र होनेवाली स्तुति (मही) = महान् है । एक-एक पदार्थ में प्रभु की महिमा दृष्टिगोचर होती है। बुद्धि उस सर्वज्ञ प्रभु में अर्पित करते हैं। प्रभु ही
भावार्थ - भावार्थ- ज्ञानी पुरुष अपने मन व को ज्ञान की वाणियों को ऋषियों के हृदयों में स्थापित करते हैं। उस प्रभु की महिमा महान् है ।
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