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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 82 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - सविता छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तत्स॑वि॒तुर्वृ॑णीमहे व॒यं दे॒वस्य॒ भोज॑नम्। श्रेष्ठं॑ सर्व॒धात॑मं॒ तुरं॒ भग॑स्य धीमहि ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । स॒वि॒तुः । वृ॒णी॒म॒हे॒ । व॒यम् । दे॒वस्य॑ । भोज॑नम् । श्रेष्ठ॑म् । स॒र्व॒ऽधात॑मम् । तुर॑म् । भग॑स्य । धी॒म॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्सवितुर्वृणीमहे वयं देवस्य भोजनम्। श्रेष्ठं सर्वधातमं तुरं भगस्य धीमहि ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। सवितुः। वृणीमहे। वयम्। देवस्य। भोजनम्। श्रेष्ठम्। सर्वऽधातमम्। तुरम्। भगस्य। धीमहि ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 82; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] (वयम्) = हम (सवितुः) = उस उत्पादक (देवस्य) = प्रकाशमय सर्वव्यवहार साधक प्रभु के (तत्) = प्रसिद्ध (भोजनम्) = पालक धन को (वृणीमहे) = वरते हैं। उस प्रभु से दिये जानेवाले धन का ही चुनाव करते हैं। प्रभु से दिये जानेवाला यह धन सदा सुपथ से अर्जित होता है। हम अपने कर्त्तव्य कर्मों में अभियुक्त होते हैं और प्रभु हमें योगक्षेम [भोजन] प्राप्त कराते हैं। इसी योगक्षेम का ही हम वरण करते हैं। [O, God! Give me my daily bread Bible] [२] इस (भगस्य) = सब के उपास्य ऐश्वर्यों के स्वामी के इस धन को हम प्राप्त करके (धीमहि) = धारण करते हैं। यह धन ('श्रेष्ठं') = श्रेष्ठ है, प्रशस्यतम है, सुपथ से कमाया जाने के कारण प्रशंसनीय है। (सर्वधातमम्) = यह यज्ञों में विनियुक्त होने के कारण सबका धारण करनेवाला है। (तुरम्) = यह धन शत्रुओं का विहिंसक है, इस धन से हम विषयवासनारूप शत्रुओं का शिकार नहीं होते।

    भावार्थ - भावार्थ- कर्त्तव्य कर्मों में नित्याभियुक्त होकर हम प्रभु से दिये जानेवाले धन की याचना करते हैं। यह धन हमारे जीवन को श्रेष्ठ बनाता है, सबका धारण करता है, इससे हम विषयवासनारूप शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होते।

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