ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 82/ मन्त्र 9
य इ॒मा विश्वा॑ जा॒तान्या॑श्रा॒वय॑ति॒ श्लोके॑न। प्र च॑ सु॒वाति॑ सवि॒ता ॥९॥
स्वर सहित पद पाठयः । इ॒मा । विश्वा॑ । जा॒तानि॑ । आ॒ऽश्रा॒वय॑ति । श्लोके॑न । प्र । च॒ । सु॒वाति॑ । स॒वि॒ता ॥
स्वर रहित मन्त्र
य इमा विश्वा जातान्याश्रावयति श्लोकेन। प्र च सुवाति सविता ॥९॥
स्वर रहित पद पाठयः। इमा। विश्वा। जातानि। आऽश्रवयति। श्लोकेन। प्र। च। सुवाति। सविता ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 82; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
विषय - आश्रावयति श्लोकेन
पदार्थ -
[१] प्रभु वे हैं (यः) = जो (इमा) = इन (विश्वा) = सब (जातानि) = उत्कृष्ट जन्मवाले मनुष्यों को (श्लोकेन) = वेदमन्त्रों के द्वारा (आश्रावयति) = पूर्णतया ज्ञानयुक्त करते हैं, वेद-मन्त्रों के द्वारा उनके सब कर्त्तव्यों को उनके लिये सुस्पष्ट कर देते हैं। [२] (च) = और इस प्रकार ज्ञान देते हुए (सविता) = वे प्रेरक प्रभु (प्रसुवाति) = सदा उत्तम कर्मों में प्रेरित करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ– वेदमन्त्रों द्वारा प्रभु सदा हमारे कर्त्तव्यों की हमारे लिये प्रेरणा देते हैं । इस प्रेरणा को सुननेवाला व्यक्ति 'अत्रि' बनता है, 'काम-क्रोध-लोभ' से ऊपर उठा रहता है। यह उस महान् 'पर्जन्य' परा तृप्ति के देनेवाले प्रभु का स्तवन करता हुआ कहता है -
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