ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 85/ मन्त्र 1
प्र स॒म्राजे॑ बृ॒हद॑र्चा गभी॒रं ब्रह्म॑ प्रि॒यं वरु॑णाय श्रु॒ताय॑। वि यो ज॒घान॑ शमि॒तेव॒ चर्मो॑प॒स्तिरे॑ पृथि॒वीं सूर्या॑य ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । स॒म्ऽराजे॑ । बृ॒हत् । अ॒र्च॒ । ग॒भी॒रम् । ब्रह्म॑ । प्रि॒यम् । वरु॑णाय । श्रु॒ताय॑ । वि । यः । ज॒घान॑ । श॒मि॒ताऽइ॑व । चर्म॑ । उ॒प॒ऽस्तिरे॑ । पृ॒थि॒वीम् । सूर्या॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सम्राजे बृहदर्चा गभीरं ब्रह्म प्रियं वरुणाय श्रुताय। वि यो जघान शमितेव चर्मोपस्तिरे पृथिवीं सूर्याय ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। सम्ऽराजे। बृहत्। अर्च। गभीरम्। ब्रह्म। प्रियम्। वरुणाय। श्रुताय। वि। यः। जघान। शमिताऽइव। चर्म। उपऽस्तिरे। पृथिवीम्। सूर्याय ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 85; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
विषय - 'सम्राट् वरुण श्रुत' प्रभु
पदार्थ -
[१] हे उपासक! तू (सम्राजे) = सम्यग् दीप्यमान, वरुणाय सब पापों के निवारक (श्रुताय) = प्रसिद्ध सर्वज्ञ प्रभु के लिये (बृहत्) = खूब ही (प्र अर्चा) = पूजा कर । उस प्रभु की पूजा के लिये (गभीरं) = इस बह्वर्थोपेत, अर्थात् अत्यन्त गम्भीर (प्रियम्) = प्रीति के जनक (ब्रह्म) = वेद-मन्त्रों से किये जानेवाले स्तोत्रों का [प्रार्च = प्रोच्चारय सा०] उच्चारण कर। [२] (यः) = जो वरुण (सूर्याय उपस्तिरे) = सूर्य किरणों के विस्तार के लिये (पृथिवीम्) = इस पृथिवी को विजघान फैलाते हैं । इस प्रकार फैलाते हैं, (इव) = जैसे कि (शमिता चर्म) = शान्तभाव से उपासना करनेवाला अपने आसन के लिये मृगचर्म को बिछाता है।
भावार्थ - भावार्थ – प्रभु 'सम्राट् है', वरुण है, श्रुत हैं। हम मन्त्रों द्वारा खूब ही प्रभु का अर्चन करें। प्रभु सूर्य किरणों के विस्तार के लिये इस पृथिवीरूप आसन को बिछाते हैं। पृथ्वी सूर्य किरणों से आच्छादित हो जाती है।
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