ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 87/ मन्त्र 2
ऋषिः - अत्रिः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - विराट्पूर्वानुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
प्र ये जा॒ता म॑हि॒ना ये च॒ नु स्व॒यं प्र वि॒द्मना॑ ब्रु॒वत॑ एव॒याम॑रुत्। क्रत्वा॒ तद्वो॑ मरुतो॒ नाधृषे॒ शवो॑ दा॒ना म॒ह्ना तदे॑षा॒मधृ॑ष्टासो॒ नाद्र॑यः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ये । जा॒ताः । म॒हि॒ना । ये । च॒ । नु । स्व॒यम् । प्र । वि॒द्मना॑ । ब्रु॒वते॑ । ए॒व॒याम॑रुत् । क्रत्वा॑ । तत् । वः॒ । म॒रु॒तः॒ । न । आ॒ऽधृषे॑ । शवः॑ । दा॒ना । म॒ह्ना । तत् । ए॒षा॒म् । अधृ॑ष्टासः । न । अद्र॑यः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ये जाता महिना ये च नु स्वयं प्र विद्मना ब्रुवत एवयामरुत्। क्रत्वा तद्वो मरुतो नाधृषे शवो दाना मह्ना तदेषामधृष्टासो नाद्रयः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठप्र। ये। जाताः। महिना। ये। च। नु। स्वयम्। प्र। विद्मना। ब्रुवते। एवयामरुत्। क्रत्वा। तत्। वः। मरुतः। न। आऽधृषे। शवः। दाना। मह्ना। तत्। एषाम्। अधृष्टासः। न। अद्रयः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 87; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 33; मन्त्र » 2
विषय - 'शक्ति विकास' व 'ज्ञानदीप्ति'
पदार्थ -
[१] (एवयामरुत्) = मार्ग पर चलनेवाला प्राणसाधक पुरुष (ब्रुवते) = उन मरुतों [प्राणों] की स्तुति करता है, (ये) = जो (मरुत् महिना) = अपनी महिमा से (प्रजाता:) = प्रकृष्ट विकासवाले हैं, जिनके द्वारा शरीर में सब शक्तियों का विकास होता है ये (च) = और जो (स्वयम्) = अपने आप (विद्मना) = ज्ञान से (प्र) [जाता:] = प्रकृष्ट प्रादुर्भाव होते हैं। प्राणसाधना के द्वारा अशुद्धियों का क्षय होकर ज्ञानदीप्ति चरमसीमा पर पहुँचकर विवेकख्याति को सिद्ध करती है। [२] हे (मरुतः) = प्राणो ! (वः तद् शवः) = आपका वह प्रसिद्ध बल (क्रत्वा) = यज्ञादि उत्तम कर्मों से युक्त हुआ हुआ (न आधृषे) = किन्हीं भी शत्रुओं से धर्षणीय नहीं होता। (तत्) = सो (एषाम्) = इन मरुतों को (दाना) = शत्रुलवन [काटना] रूप कार्य से [दाप् लवने] तथा (मह्ना) = महिमा से (अद्रयः) = प्रभु के उपासक लोग (अधृष्टासः) = न अधर्षणीय वीरों के समान होते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना से [१] सब शक्तियों का विकास होता है, [२] ज्ञानदीप्ति प्राप्त होती है, [३] अधर्षणीय बल की प्राप्ति होकर हम शत्रुओं से अधर्षणीय वीर बन पाते हैं ।
इस भाष्य को एडिट करें