ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 14/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒ग्निरिद्धि प्रचे॑ता अ॒ग्निर्वे॒धस्त॑म॒ ऋषिः॑। अ॒ग्निं होता॑रमीळते य॒ज्ञेषु॒ मनु॑षो॒ विशः॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः । इत् । हि । प्रऽचे॑र्ताः । अ॒ग्निः । वे॒धःऽत॑मः । ऋषिः॑ । अ॒ग्निम् । होता॑रम् । ई॒ळ॒ते॒ । य॒ज्ञेषु॑ । मनु॑षः । विशः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निरिद्धि प्रचेता अग्निर्वेधस्तम ऋषिः। अग्निं होतारमीळते यज्ञेषु मनुषो विशः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठअग्निः। इत्। हि। प्रऽचेताः। अग्निः। वेधःऽतमः। ऋषिः। अग्निम्। होतारम्। ईळते। यज्ञेषु। मनुषः। विशः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 14; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
विषय - 'प्रचेता वेधस्तम ऋषि होता'
पदार्थ -
[१] (अग्निः इत् हि) = वे प्रभु ही निश्चय से (प्रचेताः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले हैं, सर्वज्ञ हैं। (अग्निः) = ये अग्रेणी प्रभु ही (वेधस्तमः) = विधातृतम है, सृष्टि के सर्वोत्तम निर्माता हैं। (ऋषिः) = तत्त्वद्रष्टा हैं । [२] (मनुष: विशः) = विचारशील प्रजाएँ (होतारं अग्निम्) = उस सृष्टि यज्ञ के महान् होता व सब आवश्यक पदार्थों के देनेवाले प्रभु को (यज्ञेषु) = यज्ञों में (ईडते) = स्तुत करते हैं। यह प्रभु-स्तवन ही उन्हें जीवन के लक्ष्य का ध्यान कराता है कि उन्होंने भी - [क] प्रकृष्ट ज्ञानवाला बनाता है [प्रचेता], [ख] निर्माणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होता है [वेधस्तम], [ग] ऋषि तुल्य पवित्र जीवनवाला बनना है [ऋषि:], [घ] खूब दानशील [होता] होना है।
भावार्थ - भावार्थ- वे प्रभु 'प्रचेता, वेधस्तम, ऋषि व होता' हैं। यज्ञों में प्रभु का स्तवन करते हुए हम भी ऐसा ही बनें ।
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