ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
म॒हाँ इन्द्रो॑ नृ॒वदा च॑र्षणि॒प्रा उ॒त द्वि॒बर्हा॑ अमि॒नः सहो॑भिः। अ॒स्म॒द्र्य॑ग्वावृधे वी॒र्या॑यो॒रुः पृ॒थुः सुकृ॑तः क॒र्तृभि॑र्भूत् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान् । इन्द्रः॑ । नृ॒ऽवत् । आ । च॒र्ष॒णि॒ऽप्राः । उ॒त । द्वि॒ऽबर्हाः॑ । अ॒मि॒नः । सहः॑ऽभिः । अ॒स्म॒द्र्य॑क् । व॒वृ॒धे॒ । वी॒र्या॑य । उ॒रुः । पृ॒थुः । सुऽकृ॑तः । क॒र्तृऽभिः॑ । भू॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
महाँ इन्द्रो नृवदा चर्षणिप्रा उत द्विबर्हा अमिनः सहोभिः। अस्मद्र्यग्वावृधे वीर्यायोरुः पृथुः सुकृतः कर्तृभिर्भूत् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठमहान्। इन्द्रः। नृऽवत्। आ। चर्षणिऽप्राः। उत। द्विऽबर्हाः। अमिनः। सहःऽभिः। अस्मद्र्यक्। ववृधे। वीर्याय। उरुः। पृथुः। सुऽकृतः। कर्तृऽभिः। भूत् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - द्विवर्हाः
पदार्थ -
[१] (महान्) = पूजनीय [मह पूजायाम्] (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु (नृवत्) = नेता की तरह, जैसे एक नेता अपने अनुयायियों में उत्साह का संचार करता है, उसी प्रकार (आ चर्षणि प्राः) = समन्तात् श्रमशील मनुष्यों का पूरण करनेवाले हैं। (उत) = और वे प्रभु (द्विबर्हा:) = शरीर व मस्तिष्क दोनों का वर्धन करनेवाले हैं। (सहोभिः अमिनः) = अपने बलों के कारण हिंसित होनेवाले नहीं। [२] (अस्मद्र्यग्) = हमारी ओर आनेवाले होते हुए (वीर्याय) = हमारे पराक्रम के लिए (वावृधे) = बढ़ते हैं । (उरुः) = वे विशाल व (पृथुः) = गुणों से प्रथित प्रभु (कर्तृभिः) = स्तोताओं के द्वारा (सुकृतः भूत्) = उत्तमता से स्तुति किये जाते हैं व परिवरित [उपासित] होते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का पूजन करें, प्रभु हमारा पूरण करेंगे। हमारी मस्तिष्क व शरीर की उन्नति का कारण होते हुए हमसे वीर्यवत् कर्मों को करायेंगे।
इस भाष्य को एडिट करें