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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सुहोत्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अभू॒रेको॑ रयिपते रयी॒णामा हस्त॑योरधिथा इन्द्र कृ॒ष्टीः। वि तो॒के अ॒प्सु तन॑ये च॒ सूरेऽवो॑चन्त चर्ष॒णयो॒ विवा॑चः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अभूः॑ । एकः॑ । र॒यि॒ऽप॒ते॒ । र॒यी॒णाम् । आ । हस्त॑योः । अ॒धि॒थाः॒ । इ॒न्द्र॒ । कृ॒ष्टीः । वि । तो॒के । अ॒प्ऽसु । तन॑ये । च॒ । सूरे॑ । अवो॑चन्त । च॒र्ष॒णयः॑ । विवा॑चः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभूरेको रयिपते रयीणामा हस्तयोरधिथा इन्द्र कृष्टीः। वि तोके अप्सु तनये च सूरेऽवोचन्त चर्षणयो विवाचः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभूः। एकः। रयिऽपते। रयीणाम्। आ। हस्तयोः। अधिथाः। इन्द्र। कृष्टीः। वि। तोके। अप्ऽसु। तनये। च। सूरे। अवोचन्त। चर्षणयः। विवाचः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 31; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् ! हे (रयीणां रयिपते) = धनों के स्वामिन् प्रभो! आप ही (एक:) = अद्वितीय शासक (अभूः) = हैं। आप (कृष्टी:) = सब प्रजाओं को (हस्तयोः आ अधिथाः) = अपने हाथों में (सर्वतः) = धारण करते हैं। आप ही सबके आधार हैं। [२] (चर्षणय:) = मनुष्य तोके पुत्रों के निमित्त (अप्सु) = उत्कृष्ट कर्मों के निमित्त (च) = और (तनये) = पौत्रों के निमित्त (च) = और (सूरे) = उत्कृष्ट [शत्रूणां प्रेरणा] शत्रुओं के कम्पित करने के कार्य के निमित्त (विवाचः) = विविध स्तुतिवाणियों को (वि अवोचन्त) = विशेष रूप से आचरण करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ही शासक हैं, धनों के स्वामी हैं। सब मनुष्य 'उत्तम पुत्रों, कर्मों, पौत्रों व शत्रुकम्पन आदि कार्यों' के निमित्त प्रभु का ही विविध वाणियों से स्तवन करते हैं। प्रभु ही उचित धनों को प्राप्त कराके हमें उत्तम सन्तानादि को प्राप्त करने में क्षम करते हैं।

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