ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒र्वाग्रथं॑ वि॒श्ववा॑रं त उ॒ग्रेन्द्र॑ यु॒क्तासो॒ हर॑यो वहन्तु। की॒रिश्चि॒द्धि त्वा॒ हव॑ते॒ स्व॑र्वानृधी॒महि॑ सध॒माद॑स्ते अ॒द्य ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वाक् । रथ॑म् । वि॒श्वऽवा॑रम् । ते॒ । उ॒ग्र॒ । इन्द्र॑ । यु॒क्तासः॑ । हर॑यः । व॒ह॒न्तु॒ । की॒रिः । चि॒त् । हि । त्वा॒ । हव॑ते । स्वः॑ऽवान् । ऋ॒धी॒महि॑ । स॒ध॒ऽमादः॑ । ते॒ । अ॒द्य ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वाग्रथं विश्ववारं त उग्रेन्द्र युक्तासो हरयो वहन्तु। कीरिश्चिद्धि त्वा हवते स्वर्वानृधीमहि सधमादस्ते अद्य ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाक्। रथम्। विश्वऽवारम्। ते। उग्र। इन्द्र। युक्तासः। हरयः। वहन्तु। कीरिः। चित्। हि। त्वा। हवते। स्वःऽवान्। ऋधीमहि। सधऽमादः। ते। अद्य ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 37; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - स्वर्वान् कीरि
पदार्थ -
[१] हे (उग्र) = तेजस्विन् इन्द्र शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (युक्तासः) = शरीर-रथ में जुते हुए, अर्थात् अपना-अपना कार्य करनेवाले (हरयः) = इन्द्रियाश्व (ते) = आपके इस (विश्ववारम्) = सब वरणीय व श्रेष्ठ अंग-प्रत्यंगोंवाले रथम् शरीर-रथ को (अर्वाक् वहन्तु) = अन्तर्मुख यात्रावाला करें। हमारा यह रथ बाहिर विषयों में ही न भटकता रहे। [२] (कीरिः) = यह विषयों को अपने से दूर विकीर्ण करनेवाला स्तोता (चित् हि) = निश्चय से (त्वा) = हे प्रभो! आपको (हवते) = पुकारता है। अतएव वह (स्वर्वान्) = प्रशस्त ज्ञान के प्रकाशवाला होता है । हे प्रभो ! हम (अद्य) = आज (ते सधमाद:) = आपके साथ आनन्दित होनेवाले, आपकी उपासना में आनन्द का अनुभव करनेवाले (ऋधीमहि) = समृद्धि को प्राप्त करें ।
भावार्थ - भावार्थ- हम विषयों में न भटककर अन्तर्मुख यात्रावाले हों। प्रभु का आह्वान करें। प्रभु की उपासना में आनन्द का अनुभव करें।
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