ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यथा॑ होत॒र्मनु॑षो दे॒वता॑ता य॒ज्ञेभिः॑ सूनो सहसो॒ यजा॑सि। ए॒वा नो॑ अ॒द्य स॑म॒ना स॑मा॒नानु॒शन्न॑ग्न उश॒तो य॑क्षि दे॒वान् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । हो॒तः॒ । मनु॑षः । दे॒वऽता॑ता । य॒ज्ञेभिः॑ । सू॒नो॒ इति॑ । स॒ह॒सः॒ । यजा॑सि । ए॒व । नः॒ । अ॒द्य । स॒म॒ना । स॒मा॒नान् । उ॒शन् । अ॒ग्ने॒ । उ॒श॒सः । य॒क्षि॒ । दे॒वान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा होतर्मनुषो देवताता यज्ञेभिः सूनो सहसो यजासि। एवा नो अद्य समना समानानुशन्नग्न उशतो यक्षि देवान् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयथा। होतः। मनुषः। देवऽताता। यज्ञेभिः। सूनो इति। सहसः। यजासि। एव। नः। अद्य। समना। समानान्। उशन्। अग्ने। उशतः। यक्षि। देवान् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - देव सम्पर्क से देव बनना
पदार्थ -
[१] (यथा) = जैसे (होत:) = सब पदार्थों के देनेवाले, (सहसः सूनो) = बल के पुञ्ज प्रभो! आप (देवताता) = दिव्य गुणों के विस्तार के निमित्त (मनुषः) = इन विचारशील पुरुषों को (यज्ञेभिः) = यज्ञों से यजासि संगत करते हैं। यज्ञों में प्रवृत्त होकर ही तो इनके सगुणों का वर्धन होगा। इन यज्ञों के लिये सब आवश्यक साधनों को आप प्राप्त कराते ही हैं। इन साधनों के साथ यज्ञों को करने के लिये उन्हें सशक्त भी करते हैं । [२] (एवा) = इसी प्रकार (नः) = हमें (अद्य) = आज (समना) = [ क्षिप्रं ] शीघ्र ही, हे (उशन् अग्ने) = हमारे हित की कामनावाले अंग्रेणी प्रभो! आप (समानान्) = आप जैसे [ब्रह्म वेद ब्रह्मवै भवति] आप के साथ सदा सम्पर्कवाले (उशतः) = हमारे भले की कामनावाले (देवान्) = देव पुरुषों को यक्षि प्राप्त कराइये, हमारे साथ ऐसे देवों का संग करिये। इनके द्वारा दी गई उत्तम प्रेरणाओं से हम भी देव बनकर आपके सच्चे उपासक बनें।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु उपासकों को यज्ञशील बनाकर देव बनाते हैं। इन देवों के साथ सम्पर्क से हम भी दिव्यता के मार्ग पर आगे बढ़ते हैं ।
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