ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
या ते॑ का॒कुत्सुकृ॑ता॒ या वरि॑ष्ठा॒ यया॒ शश्व॒त्पिब॑सि॒ मध्व॑ ऊ॒र्मिम्। तया॑ पाहि॒ प्र ते॑ अध्व॒र्युर॑स्था॒त्सं ते॒ वज्रो॑ वर्ततामिन्द्र ग॒व्युः ॥२॥
स्वर सहित पद पाठया । ते॒ । का॒कुत् । सुऽकृ॑ता । या । वरि॑ष्ठा । यया॑ । शश्व॑त् । पिब॑सि । मध्वः॑ । ऊ॒र्मिम् । तया॑ । पा॒हि॒ । प्र । ते॒ । अ॒ध्व॒र्युः । अ॒स्था॒त् । सम् । ते॒ । वज्रः॑ । व॒र्त॒ता॒म् । इ॒न्द्र॒ । ग॒व्युः ॥
स्वर रहित मन्त्र
या ते काकुत्सुकृता या वरिष्ठा यया शश्वत्पिबसि मध्व ऊर्मिम्। तया पाहि प्र ते अध्वर्युरस्थात्सं ते वज्रो वर्ततामिन्द्र गव्युः ॥२॥
स्वर रहित पद पाठया। ते। काकुत्। सुऽकृता। या। वरिष्ठा। यया। शश्वत्। पिबसि। मध्वः। ऊर्मिम्। तया। पाहि। प्र। ते। अध्वर्युः। अस्थात्। सम्। ते। वज्रः। वर्तताम्। इन्द्र। गव्युः ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
विषय - 'सुकृता-वरिष्ठा' काकुत्
पदार्थ -
[१] हे प्रभो ! (या) = जो (ते) = आपकी, आप से दी गयी, यह (काकुत्) = जिह्वा (सुकृता) = सम्यक् परिष्कृत है, (या) = जो (वरिष्ठा) = उरुतम है, विशाल है, (यया) = जिसके द्वारा (शश्वत्) = सदा (मध्वः ऊर्मिम्) = मधुर ज्ञान की (ऊर्मिम्) = ऊर्मि को, लहर को (पिबसि) = हमारे शरीर के अन्दर पान करते हैं (तया पाहि) = उसके द्वारा हमें रक्षित करिये। जब मनुष्य इस जिह्वा से ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करता है और अपने ज्ञान को विशाल बनाता है तो उस समय यह ज्ञान प्राप्ति में लगी हुई जिह्वा सोमरक्षण का साधन बनती है। यह सोमरक्षण हमारे 'शरीर मानस व बौद्ध' स्वास्थ्य का साधन बनता है। [२] (ते) = यह आपसे रक्षित (अध्वर्युः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों का प्रणेता पुरुष (प्र अस्थात्) = जीवनयात्रा में आगे और आगे बढ़ता है। हे इन्द्र प्रभो ! (ते) = आपका (वज्रः) = वज्र, यह क्रियाशीलता रूप आज हमारे लिये (गव्युः) = प्रशस्त इन्द्रियों को हमारे साथ जोड़नेवाला (संवर्तताम्) = हो । अर्थात् आपकी प्रेरणा से यज्ञादि उत्तम कर्मों में प्रेरित हुए हुए हम सदा अपनी इन्द्रियों को प्रशस्त रख पायें, हमारी ये इन्द्रियाँ वासनाओं से मलिन न हों।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु से दी गई ये वाणी [जिह्वा] ज्ञान प्राप्ति में लगी रहकर सोमरक्षण का साधन बने । सुरक्षित सोमवाला यह पुरुष यज्ञशील बने। यज्ञशीलता इसकी इन्द्रियों को विषयाक्रान्त होने से बचाये ।
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