ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 46/ मन्त्र 2
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः प्रगाथो वा
छन्दः - स्वराड्बृहती
स्वरः - मध्यमः
स त्वं न॑श्चित्र वज्रहस्त धृष्णु॒या म॒हः स्त॑वा॒नो अ॑द्रिवः। गामश्वं॑ र॒थ्य॑मिन्द्र॒ सं कि॑र स॒त्रा वाजं॒ न जि॒ग्युषे॑ ॥२॥
स्वर सहित पद पाठसः । त्वम् । नः॒ । चि॒त्र॒ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । म॒हः । स्त॒वा॒नः । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । गाम् । अश्व॑म् । र॒थ्य॑म् । इ॒न्द्र॒ । सम् । कि॒र॒ । स॒त्रा । वाज॑म् । न । जि॒ग्युषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स त्वं नश्चित्र वज्रहस्त धृष्णुया महः स्तवानो अद्रिवः। गामश्वं रथ्यमिन्द्र सं किर सत्रा वाजं न जिग्युषे ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसः। त्वम्। नः। चित्र। वज्रऽहस्त। धृष्णुऽया। महः। स्तवानः। अद्रिऽवः। गाम्। अश्वम्। रथ्यम्। इन्द्र। सम्। किर। सत्रा। वाजम्। न। जिग्युषे ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
विषय - महः, गौ, अश्व, वाज
पदार्थ -
[१] हे (चित्र) = चायनीय-पूजनीय (वज्रहस्त) = दुष्टों को दण्ड देने के लिये हाथ में वज्र लिये हुए (अद्रिवः) = शत्रुओं से न विदीर्ण किये जानेवाले प्रभो ! (स्तवानः) = स्तुति किये जाते हुए (सः त्वम्) = वे आप (नः) = हमारे लिये (धृष्णुया) = शत्रुओं के धर्षण के हेतु से (महः) = तेजस्विता को (सं किर) = दीजिये। आप से तेजस्विता को प्राप्त करके हम काम-क्रोध आदि शत्रुओं का धर्षण करनेवाले बनें। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप (रथ्यम्) = शरीररूपी रथ में उत्तमता से कार्य करनेवाली (गाम्) = ज्ञानेन्द्रियों व (अश्वम्) = कर्मेन्द्रियों को (संकिर) = दीजिये और हे प्रभो ! (सत्रा) = सदा (जिग्युषे न) = जैसे एक विजयशील पुरुष के लिये उसी प्रकार हमें (वाजम्) = शक्ति को दीजिये। एक इन्द्रियों को जीतनेवाला पुरुष जैसे शक्ति सम्पन्न बनता है, उसी प्रकार हम भी शक्ति को प्राप्त करें।
भावार्थ - भावार्थ- स्तुति किये जाते हुए प्रभु हमारे लिये शक्ति को दें, जिससे कि हम शत्रुओं के विजेता बनें।
इस भाष्य को एडिट करें