ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 46/ मन्त्र 5
ऋषिः - शंयुर्बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्रः प्रगाथो वा
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
इन्द्र॒ ज्येष्ठं॑ न॒ आ भ॑रँ॒ ओजि॑ष्ठं॒ पपु॑रि॒ श्रवः॑। येने॒मे चि॑त्र वज्रहस्त॒ रोद॑सी॒ ओभे सु॑शिप्र॒ प्राः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । ज्येष्ठ॑म् । नः॒ । आ । भ॒र॒ । ओजि॑ष्ठम् । पपु॑रि । श्रवः॑ । येन॑ । इ॒मे इति॑ । चि॒त्र॒ । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । आ । उ॒भे इति॑ । सु॒शि॒प्र॒ । प्राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र ज्येष्ठं न आ भरँ ओजिष्ठं पपुरि श्रवः। येनेमे चित्र वज्रहस्त रोदसी ओभे सुशिप्र प्राः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र। ज्येष्ठम्। नः। आ। भर। ओजिष्ठम्। पपुरि। श्रवः। येन। इमे इति। चित्र। वज्रऽहस्त। रोदसी इति। आ। उभे इति। सुशिप्र। प्राः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 46; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
विषय - 'ज्येष्ठ-ओजिष्ठ-पपुरि-शवस्'
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (नः) = हमारे लिये (ज्येष्ठम्) = प्रशस्यतम (ओजिष्ठम्) = अत्यन्त ओजस्वी (पपुरि) = पालक व पूरक (श्रवः) = ज्ञान को आभर प्राप्त कराइये । [२] हे (चित्र) = चायनीयपूजनीय, (वज्रहस्त) = वज्र हाथ में लिये हुए प्रभो! दुष्टों को दण्ड देनेवाले (सुशिप्र) = उत्तम हनु व नासिकावाले प्रभो ! उस ज्ञान को हमें प्राप्त कराइये (येन) = जिससे कि इमे उभे इन दोनों (रोदसी) = द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (आ प्राः) = आप पूरित करते हैं। यहाँ 'सुशिप्र' सम्बोधन इस भाव को व्यक्त कर रहा है कि हम खूब चबाकर खायें [हनु] और प्राणायाम करें [नासिका] जिससे शरीर के रोगों व मन के दोषों से दूर रहते हुए हम उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त कर सकें । प्रभु सुशिप्र हैं, हम भी सुशिप्र बनें और 'ज्येष्ठ ओजिष्ठ पपुरि श्रव' को प्राप्त करें ।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु हमें वह प्रशस्त ज्ञान दें जिससे कि वे सब का पूरण करते हैं, सब की न्यूनताओं को दूर करते हैं।
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