ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 49/ मन्त्र 1
स्तु॒षे जनं॑ सुव्र॒तं नव्य॑सीभिर्गी॒र्भिर्मि॒त्रावरु॑णा सुम्न॒यन्ता॑। त आ ग॑मन्तु॒ त इ॒ह श्रु॑वन्तु सुक्ष॒त्रासो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॒ग्निः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठस्तु॒षे । जन॑म् । सु॒ऽव्र॒तम् । नव्य॑सीभिः । गीः॒ऽभिः । मि॒त्रावरु॑णा । सु॒म्न॒ऽयन्ता॑ । ते । आ । ग॒म॒न्तु॒ । ते । इ॒ह । श्रु॒व॒न्तु॒ । सु॒ऽक्ष॒त्रासः॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒ग्निः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तुषे जनं सुव्रतं नव्यसीभिर्गीर्भिर्मित्रावरुणा सुम्नयन्ता। त आ गमन्तु त इह श्रुवन्तु सुक्षत्रासो वरुणो मित्रो अग्निः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठस्तुषे। जनम्। सुऽव्रतम्। नव्यसीभिः। गीःऽभिः। मित्रावरुणा। सुम्नऽयन्ता। ते। आ। गमन्तु। ते। इह। श्रुवन्तु। सुऽक्षत्रासः। वरुणः। मित्रः। अग्निः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 49; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - सुक्षत्रासः-'वरुणः मित्रः अग्निः'
पदार्थ -
[१] (नव्यसीभिः गीर्भिः) = अत्यन्त स्तुत्य वाणियों से (सुव्रतं जनम्) = उत्तम कर्मोंवाले लोगों का (स्तुषे) = स्तवन करता हूँ। वस्तुतः इन सुव्रत जनों का आदर हमें भी सुव्रत बनने की प्रेरणा देता है। मैं (सुम्नयन्ता) = हमारे सुखों की कामना करते हुए (मित्रावरुणा) = मित्र और वरुण का स्तवन करता हूँ। वस्तुत: 'स्नेह व निर्देषता' के भाव हमारे जीवनों को सुखी बनानेवाले हैं । [२] (ते) = वे सुव्रत जन तथा मित्र और वरुण, स्नेह व निर्देषता के देव, (आगमन्तु) = हमें प्राप्त हों । (ते) = वे (इह) = इस जीवन में (ध्रुवन्तु) = हमारी आराधना को सुनें । अर्थात् हम भी 'सुव्रत, मित्र व वरुण' बन पायें । (वरुणः) = निर्देषता की देवता, (मित्रः) = स्नेह की देवता तथा (अग्निः) = अग्रगति की देवता ये सब (सुक्षत्रासः) = हमें उत्तम बल को देनेवाली हैं। मित्र, वरुण व अग्नि बनकर हम वास्तविक बल का धारण करते हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- हम सुव्रत लोगों का आदर करते हुए स्वयं सुव्रत बनें। स्नेह व निर्देषता के भावों को धारण करके सुखी हों। ये 'स्नेह, निर्देषता व अग्रगति' के भाव हमें सबल बनायें ।
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