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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ऋजिश्वाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    न तद्दि॒वा न पृ॑थि॒व्यानु॑ मन्ये॒ न य॒ज्ञेन॒ नोत शमी॑भिरा॒भिः। उ॒ब्जन्तु॒ तं सु॒भ्वः१॒॑ पर्व॑तासो॒ नि ही॑यतामतिया॒जस्य॑ य॒ष्टा ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । तत् । दि॒वा । न । पृ॒थि॒व्या । अनु॑ । म॒न्ये॒ । न । य॒ज्ञेन॑ । न । उ॒त । शमी॑भिः । आ॒भिः । उ॒ब्जन्तु॑ । तम् । सु॒ऽभ्वः॑ । पर्व॑तासः । नि । ही॒य॒ता॒म् । अ॒ति॒ऽया॒जस्य॑ । य॒ष्टा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न तद्दिवा न पृथिव्यानु मन्ये न यज्ञेन नोत शमीभिराभिः। उब्जन्तु तं सुभ्वः१ पर्वतासो नि हीयतामतियाजस्य यष्टा ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। तत्। दिवा। न। पृथिव्या। अनु। मन्ये। न। यज्ञेन। न। उत। शमीभिः। आभिः। उब्जन्तु। तम्। सुऽभ्वः। पर्वतासः। नि। हीयताम्। अतिऽयाजस्य। यष्टा ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] प्रभु कहते हैं कि मैं (न अनुमन्ये) = इस बात की स्वीकृति नहीं दे सकता कि (अतियाजस्य) = यष्टा अतिशयेन दानरूप यज्ञ का करनेवाला यह दाता (तद्दिवा निहीयताम्) = उस मस्तिष्करूप द्युलोक से हीन हो। इसका मस्तिष्क तो उत्तम ही होता है। इसी प्रकार मैं यह अनुमति (न) = नहीं दे सकता कि वह (पृथिव्या) = शरीररूप पृथिवी से [निहीयताम् ] हीन हो जाये । इसका शरीर भी बड़ा स्वस्थ रहता है । यह (यज्ञेन न) = [निहीयताम्] यज्ञों से भी हीन न हो। (उत) = और (न) = नांही (आभिः शमीभिः) = इन उत्तम कर्मों से हीन हों। [२] (तम्) = उस अतियाज के यष्टा के प्रति (सुभ्वः) = ये उत्तम भूमियाँ तथा (पर्वतासः) = पर्वत भी उब्जन्तु - [be subdued], वशीभूत हुए हुए हों। उसके प्रति ये सब अनुकूलतावाले हों।

    भावार्थ - भावार्थ- हम खूब दानशील हों। प्रभु इस दानशील को उत्तम मस्तिष्क व शरीरवाला तथा यज्ञशील व उत्तम कर्म-परायण बनाते हैं। इसके प्रति पर्वत व भूमियाँ सब अनुकूलतावाली होती हैं।

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