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ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
शु॒क्रं ते॑ अ॒न्यद्य॑ज॒तं ते॑ अ॒न्यद्विषु॑रूपे॒ अह॑नी॒ द्यौरि॑वासि। विश्वा॒ हि मा॒या अव॑सि स्वधावो भ॒द्रा ते॑ पूषन्नि॒ह रा॒तिर॑स्तु ॥१॥
स्वर सहित पद पाठशु॒क्रम् । ते॒ । अ॒न्यत् । य॒ज॒तम् । ते॒ । अ॒न्यत् । विषु॑रूपे॒ इति॒ विषु॑ऽरूपे । अह॑नी॒ इति॑ । द्यौःऽइ॑व । अ॒सि॒ । विश्वाः॑ । हि । मा॒याः । अव॑सि । स्व॒धा॒ऽवः॒ । भ॒द्रा । ते॒ । पू॒ष॒न् । इ॒ह । रा॒तिः । अ॒स्तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शुक्रं ते अन्यद्यजतं ते अन्यद्विषुरूपे अहनी द्यौरिवासि। विश्वा हि माया अवसि स्वधावो भद्रा ते पूषन्निह रातिरस्तु ॥१॥
स्वर रहित पद पाठशुक्रम्। ते। अन्यत्। यजतम्। ते। अन्यत्। विषुरूपे इति विषुऽरूपे। अहनी इति। द्यौःऽइव। असि। विश्वाः। हि। मायाः। अवसि। स्वधाऽवः। भद्रा। ते। पूषन्। इह। रातिः। अस्तु ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
विषय - शुक्रं- यजतम्
पदार्थ -
[१] गत मन्त्र में प्राणसाधना करनेवाला पुरुष पूषा है। यह पूषा अपने जीवन को निर्मल व ज्ञानदीप्त बनाता है । हे (पूषन्) = प्राणसाधक पुरुष! (ते) = तेरा यह (शुक्रम्) = ज्ञानदीप्त रूप (अन्यत्) = विलक्षण ही है । तथा मन की निर्मलता के होने पर (यजतम्) = सब के साथ संगतिकरणवाला (ते) = तेरा रूप भी (अन्यत्) = विलक्षण है। इन शुक्र और यजत रूपों से तू (विषुरूपे अहनी इव असि) = भिन्नभिन्न उत्तम रूपवाली दिन-रात्रि के समान है। दिन के समान शुक्र [दीप्त] है । रात्रि के समान यजत है, रात में सब वैरविरोध को भूलकर गाढ़-निद्रा में उस आनन्दमयकोश में पहुँच जाते हैं, जो कि सबका एक है। (द्यौः) = इव असि तू इस द्युलोक के समान है, जो दीप्त है और समानरूप से सबका निवास स्थान है। [२] हे पूषन् ! तू (विश्वाः) = सब (हि) = ही (माया:) = प्रज्ञानों को (अवसि) = अपने अन्दर सुरक्षित करता है। प्राणसाधना से बुद्धि का दीपन होकर सब प्रज्ञानों की प्राप्ति होती है । हे (स्वधावः) = आत्मधारण-शक्तिवाले पूषन् [स्व-धा-वः] अथवा [स्व-धाव] प्राणसाधना द्वारा आत्मशोधन करनेवाले पूषन् ! (इह) = इस जीवन में (राति:) = दान [दान की वृत्ति] (ते भद्रास्तु) = तेरे लिये कल्याणकारिणी हो। यह दानवृत्ति ही मनुष्य के पापों का खण्डन करनेवाली होती है।
भावार्थ - भावार्थ- प्राणसाधना से मस्तिष्क दीप्त होता है, मन निर्मल होकर सब के प्रति मेल व प्रेमवाला होता है। यह दोनों ही रूप कितने सुन्दर हैं? सब प्रज्ञानोंवाला होता हुआ यह पूषा दान की वृत्तिवाला बनता है। यही उसे पवित्र बनाती है ।
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