ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 61/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - सरस्वती
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
इ॒यम॑ददाद्रभ॒समृ॑ण॒च्युतं॒ दिवो॑दासं वध्र्य॒श्वाय॑ दा॒शुषे॑। या शश्व॑न्तमाच॒खादा॑व॒सं प॒णिं ता ते॑ दा॒त्राणि॑ तवि॒षा स॑रस्वति ॥१॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । अ॒द॒दा॒त् । र॒भ॒सम् । ऋ॒ण॒ऽच्युत॑म् । दिवः॑ऽदासम् । व॒ध्रि॒ऽअ॒श्वाय॑ । दा॒शुषे॑ । या । शश्व॑न्तम् । आ॒ऽच॒खाद॑ । अ॒व॒सम् । प॒णिम् । ता । ते॒ । दा॒त्राणि॑ । त॒वि॒षा । स॒र॒स्व॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इयमददाद्रभसमृणच्युतं दिवोदासं वध्र्यश्वाय दाशुषे। या शश्वन्तमाचखादावसं पणिं ता ते दात्राणि तविषा सरस्वति ॥१॥
स्वर रहित पद पाठइयम्। अददात्। रभसम्। ऋणऽच्युतम्। दिवःऽदासम्। वध्रिऽअश्वाय। दाशुषे। या। शश्वन्तम्। आऽचखाद। अवसम्। पणिम्। ता। ते। दात्राणि। तविषा। सरस्वति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 61; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
विषय - उत्तम सन्तान की प्राप्ति व स्वार्थ-त्याग
पदार्थ -
[१] 'सरस्वती' ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता है। इसकी आराधना के होने पर हमारे सन्तान उत्तम होते हैं और स्वार्थ भावना हमारे से दूर होती है। इसी बात को इस प्रकार कहते हैं कि (इयम्) = यह सरस्वती (वध्र्यश्वाय) = इन्द्रियरूप अश्वों को संयम रज्जु [वर्धी] से बाँधनेवाले (दाशुषे) = दानशील पुरुष के लिये (रभसम्) = वेगवाले कार्यों को स्फूर्ति से करनेवाले शक्तिशाली [ robust], (ऋणच्युतम्) = 'पितृऋण, देवऋण व ऋषिऋण' आदि ऋणों को अदा करनेवाले, (दिवोदासम्) = ज्ञान के उपासक सन्तान को अददात् देती है। [२] हे सरस्वति ! (यः) = जो तू (शश्वन्तम्) = धन प्राप्ति के कार्यों में निरन्तर भागदौड़वाले, (अवसम्) = अपने ही तर्पण में प्रवृत्त, (पणिम्) = वणिग् वृत्तिवाले पुरुष को (आचखाद) = खा जाती है, समाप्त कर देती है, अर्थात् तेरी आराधना से धन की इतनी ममता नहीं रह जाती और मनुष्य 'दाश्वान्' बनता है । हे सरस्वति ! (ते) = तेरे (ता) = वे (दात्राणि) = दान (तविषा) = महान् हैं ।
भावार्थ - भावार्थ- सरस्वती की आराधना 'शक्तिशाली, ऋणों के अदा करनेवाले, ज्ञानरुचि' सन्तान को देती है तथा हमारी स्वार्थवृत्ति को विनष्ट करती है।
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