ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - मरुतः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वपु॒र्नु तच्चि॑कि॒तुषे॑ चिदस्तु समा॒नं नाम॑ धे॒नु पत्य॑मानम्। मर्ते॑ष्व॒न्यद्दो॒हसे॑ पी॒पाय॑ स॒कृच्छु॒क्रं दु॑दुहे॒ पृश्नि॒रूधः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठवपुः॑ । नु । तत् । चि॒कि॒तुषे॑ । चि॒त् । अ॒स्तु॒ । स॒मा॒नम् । नाम॑ । धे॒नु । पत्य॑मानम् । मर्ते॑षु । अ॒न्यत् । दो॒हसे॑ । पी॒पाय॑ । स॒कृत् । शु॒क्रम् । दु॒दु॒हे॒ । पृश्निः॑ । ऊधः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वपुर्नु तच्चिकितुषे चिदस्तु समानं नाम धेनु पत्यमानम्। मर्तेष्वन्यद्दोहसे पीपाय सकृच्छुक्रं दुदुहे पृश्निरूधः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठवपुः। नु। तत्। चिकितुषे। चित्। अस्तु। समानम्। नाम। धेनु। पत्यमानम्। मर्तेषु। अन्यत्। दोहसे। पीपाय। सकृत्। शुक्रम्। दुदुहे। पृश्निः। ऊधः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - मरुतों के तीन रूप [प्राण, सैनिक, वृष्टि की वायुवें]
पदार्थ -
[१] शरीर में 'मरुत्' 'प्राण' हैं। आधिदैविक जगत् में ये 'वर्षा को लानेवाली वायुवें' हैं । आधिभौतिक जगत् में ये 'राष्ट्र के रक्षक सैनिक' हैं । हे प्राणो! (नु) = अब (चिकितुषे) = ज्ञानी पुरुष के लिये आपका (तत्) = वह (वपुः) = रूप (चित् अस्तु) = निश्चय से हो । जो (समानम्) = [सं आनयति] जीवन में प्राणशक्ति का संचार करनेवाला है, (नाम) = शत्रुओं को नमानेवाला है, (धेनु) = शत्रु विनाश के द्वारा प्रीणित करनेवाला है (पत्यमानम्) = निरन्तर गतिवाला है। इन प्राणों के द्वारा हम क्रियाशील बने रह पाते हैं। [२] आधिभौतिक क्षेत्र में (मर्तेषु रणांगण) = में शरीरों का त्याग करनेवाले पुरुषों में (दोहसे) = इष्ट शक्तियों के पूरण के लिये (अन्यत्) = मरुतों का विलक्षण बल (पीपाय) = वृद्धि को प्राप्त होता है। [३] आधिदैविक क्षेत्र में मरुतों [वर्षा की वायुवों] की कृपा से ही (पृश्नि:) = अन्तरिक्ष (सकृत्) = वर्ष में एक बार, अर्थात् वर्षा ऋतु में (शुक्रं ऊधः) = शुक्लवर्ण जल को (दुदुहे) = पृथ्वी पर क्षरित करता है।
भावार्थ - भावार्थ– प्राण हमें सबल बनाते हैं। राष्ट्र में मरुत् [सैनिक] विलक्षण बल को प्रकट करते हैं। आधिदैविक जगत् में वृष्टि की वायुवें शुक्लवर्ण जल का दोहन करती हैं।
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