ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
पृ॒क्षस्य॒ वृष्णो॑ अरु॒षस्य॒ नू सहः॒ प्र नु वो॑चं वि॒दथा॑ जा॒तवे॑दसः। वै॒श्वा॒न॒राय॑ म॒तिर्नव्य॑सी॒ शुचिः॒ सोम॑इव पवते॒ चारु॑र॒ग्नये॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒क्षस्य॑ । वृष्णः॑ । अ॒रु॒षस्य॑ । नु । सहः॑ । प्र । नु । वो॒च॒म् । वि॒दथा॑ । जा॒तऽवे॑दसः । वै॒श्वा॒न॒राय॑ । म॒तिः । नव्य॑सी । शुचिः॑ । सोमः॑ऽइव । प॒व॒ते॒ । चारुः॑ । अ॒ग्नये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पृक्षस्य वृष्णो अरुषस्य नू सहः प्र नु वोचं विदथा जातवेदसः। वैश्वानराय मतिर्नव्यसी शुचिः सोमइव पवते चारुरग्नये ॥१॥
स्वर रहित पद पाठपृक्षस्य। वृष्णः। अरुषस्य। नु। सहः। प्र। नु। वोचम्। विदथा। जातऽवेदसः। वैश्वानराय। मतिः। नव्यसी। शुचिः। सोमःऽइव। पवते। चारुः। अग्नये ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - प्रभु-स्तवन व सुन्दर जीवन
पदार्थ -
[१] (पृक्षस्य) = सर्वत्र सम्पृक्त, अर्थात् सर्वव्यापक, (वृष्णः) = सब पर सुखों का वर्षण करनेवाले अथवा शक्तिशाली (अरुषस्य) = आरोचमान (जातवेदसः) = उस सर्वज्ञ प्रभु के (सह:) = शत्रु-मर्षक सामर्थ्य को (नु) = अब (विदथा) = इस ज्ञानयज्ञ में (नु) = निश्चय से (प्रवोचम्) = प्रकर्षेण प्रतिपादित करता हूँ । इस प्रभु का बल ही तो मेरे भी काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं को शीर्ण करनेवाला है। [२] उस (वैश्वानराय) = सब नरों का हित करनेवाले (अग्नये) = अग्रेणी प्रभु के लिये, (सोमः इव) = सोम की तरह (चारुः) = सुन्दर (शुचिः) = पवित्र (नव्यसी) = अतिशयेन (प्रशस्य मतिः) = मननपूर्वक की गई स्तुति (पवते) = प्राप्त होती है। मैं उस प्रभु का स्तवन करता हूँ। यह स्तवन मेरे जीवन को सुन्दर पवित्र व प्रशस्त बनाता है। इस स्तवन से मेरे में सोम का भी रक्षण होता है ।
भावार्थ - भावार्थ— मैं सर्वव्यापक शक्तिशाली आरोचमान सर्वज्ञ प्रभु का स्तवन करता हूँ। इस स्तवन से मेरे बनता जीवन में सोम [वीर्य] का रक्षण होता है और मेरा जीवन सुन्दर, पवित्र व प्रशस्त बनता है ।
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