ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 16/ मन्त्र 1
ए॒ना वो॑ अ॒ग्निं नम॑सो॒र्जो नपा॑त॒मा हु॑वे। प्रि॒यं चेति॑ष्ठमर॒तिं स्व॑ध्व॒रं विश्व॑स्य दू॒तम॒मृत॑म् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठए॒ना । वः॒ । अ॒ग्निम् । नम॑सा । ऊ॒र्जः । नपा॑तम् । आ । हु॒वे॒ । प्रि॒यम् । चेति॑ष्ठम् । अ॒र॒तिम् । सु॒ऽअ॒ध्व॒रम् । विश्व॑स्य । दू॒तम् । अ॒मृत॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
एना वो अग्निं नमसोर्जो नपातमा हुवे। प्रियं चेतिष्ठमरतिं स्वध्वरं विश्वस्य दूतममृतम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठएना। वः। अग्निम्। नमसा। ऊर्जः। नपातम्। आ। हुवे। प्रियम्। चेतिष्ठम्। अरतिम्। सुऽअध्वरम्। विश्वस्य। दूतम्। अमृतम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 16; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
विषय - नमन के द्वारा अग्नि का उपासन
पदार्थ -
[१] (एना नमसा) = इस नमन के द्वारा (व:) = तुम्हारे (अग्निम्) = अग्रेणी, (ऊर्ज: न पातम्) = शक्ति को न गिरने देनेवाले प्रभु को (आहुवे) = पुकारता हूँ। (प्रियम्) = जो प्रीति के जनक हैं, (चेतिष्ठम्) = अधिक से अधिक चेतानेवाले हैं। (अरतिम्) = सर्वत्र गतिवाले हैं अथवा [अ- रतिं] = अनासक्त हैं। असक्त सर्वमृञ्चैव'। [२] उस प्रभु को मैं नमन के द्वारा आराधित करता हूँ, जो स्वध्वरम् उत्तम अध्वरोंवाले हैं। (विश्वस्य दूतम्) = सब के लिए ज्ञान-सन्देश को प्राप्त करानेवाले हैं और अमृतम् [न मृतं यस्मात्] अमरता को प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ - भावार्थ- नम्रतापूर्वक अग्रेणी प्रभु का उपासन करते हुए हम प्रभु के प्रिय बनते हैं। वे प्रभु हमारे लिये ज्ञान-सन्देश को प्राप्त कराते हुए हमें अमर बनाते हैं।
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