ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
श्वि॒त्यञ्चो॑ मा दक्षिण॒तस्क॑पर्दा धियंजि॒न्वासो॑ अ॒भि हि प्र॑म॒न्दुः। उ॒त्तिष्ठ॑न्वोचे॒ परि॑ ब॒र्हिषो॒ नॄन्न मे॑ दू॒रादवि॑तवे॒ वसि॑ष्ठाः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठश्वि॒त्यञ्चः॑ । मा । द॒क्षि॒ण॒तःऽक॑पर्दाः । धि॒य॒म्ऽजि॒न्वासः॑ । अ॒भि । हि । प्र॒ऽम॒न्दुः । उ॒त्ऽतिष्ठ॑न् । वो॒चे॒ । परि॑ । ब॒र्हिषः॑ । नॄन् । न । मे॒ । दू॒रात् । अवि॑तवे । वसि॑ष्ठाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्वित्यञ्चो मा दक्षिणतस्कपर्दा धियंजिन्वासो अभि हि प्रमन्दुः। उत्तिष्ठन्वोचे परि बर्हिषो नॄन्न मे दूरादवितवे वसिष्ठाः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठश्वित्यञ्चः। मा। दक्षिणतःऽकपर्दाः। धियम्ऽजिन्वासः। अभि। हि। प्रऽमन्दुः। उत्ऽतिष्ठन्। वोचे। परि। बर्हिषः। नॄन्। न। मे। दूरात्। अवितवे। वसिष्ठाः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - विद्वानों का सम्मान
पदार्थ -
पदार्थ- (शिवत्यञ्चः) = वृद्धि को प्राप्त, (दक्षिणतः-कपर्दा:) = दायें भाग में जटाजूट रखनेवाले (धियं-जिन्वासः) = उत्तम मति को प्राप्त, (वसिष्ठा:) = ब्रह्मचारी, वसुगण (मा अभि प्रमन्दुः) = हि मुझे आनन्दित करें और वे (अवितवे) = ज्ञान देने के लिये (दूरात्) = दूर देश से भी आयें। उन (नॄन्) = उत्तम पुरुषों का मैं (बर्हिषः) = वृद्धियुक्त आसन से (उत् तिष्ठन्) = उठकर (परि वोचे) = आदर- युक्त वचन से सत्कार करूँ।
भावार्थ - भावार्थ- उत्तम कोटि के विद्वानों को देव कहा गया है। जब कभी कोई ऐसा विद्वान् घर पर आवे तो श्रद्धा के साथ खड़े होकर उत्तम वाणी एवं उत्तम आसन आदि के द्वारा उनका सम्मान करें। गृहस्थी कामना किया करें कि दूर स्थानों से चलकर भी ऐसे विद्वान् हमारे पास आवें, जिनसे हमें मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे।
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