ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
आ वो॒ वाहि॑ष्ठो वहतु स्त॒वध्यै॒ रथो॑ वाजा ऋभुक्षणो॒ अमृ॑क्तः। अ॒भि त्रि॑पृ॒ष्ठैः सव॑नेषु॒ सोमै॒र्मदे॑ सुशिप्रा म॒हभिः॑ पृणध्वम् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ । वः॒ । वाहि॑ष्ठः । व॒ह॒तु॒ । स्त॒वध्यै॑ । रथः॑ । वा॒जाः॒ । ऋ॒भु॒क्ष॒णः॒ । अमृ॑क्तः । अ॒भि । त्रि॑ऽपृ॒ष्ठैः । सव॑नेषु । सोमैः॑ । मदे॑ । सु॒ऽशि॒प्राः॒ । म॒हऽभिः॑ । पृ॒ण॒ध्व॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वो वाहिष्ठो वहतु स्तवध्यै रथो वाजा ऋभुक्षणो अमृक्तः। अभि त्रिपृष्ठैः सवनेषु सोमैर्मदे सुशिप्रा महभिः पृणध्वम् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआ। वः। वाहिष्ठः। वहतु। स्तवध्यै। रथः। वाजाः। ऋभुक्षणः। अमृक्तः। अभि। त्रिऽपृष्ठैः। सवनेषु। सोमैः। मदे। सुऽशिप्राः। महऽभिः। पृणध्वम् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 37; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
विषय - तेजस्वी पुरुष
पदार्थ -
पदार्थ - हे (वाजाः) = बलशाली जनो! हे (ऋभुक्षणः) = तेज से चमकनेवाले सूर्यवत् तेजस्वी पुरुषो! (वः) = तुम लोगों को (रथः) = रमणीय, रसस्वरूप (अमृक्तः) = अविनाशी (वाहिष्ठः) = रथ- समान सबको उद्देश्य तक उठाकर पहुँचा देने में सर्वश्रेष्ठ (आ वहतु) = सब प्रकार से रथ के समान धारण करे; वही (स्तवध्यै) = स्तुति- योग्य है। हे (सु-शिप्राः) = सौम्य-मुख जनो! (सवनेषु) = यज्ञादि कर्मों के समय आप लोग (महभिः) = महत्त्व-युक्त (त्रिपृष्ठैः सोमैः) = तीन-तीन रूपोंवाले ऐश्वर्यों, अन्नों और ज्ञानों से (मदे) = आनन्द में (अभि पृणध्वम्) = सबको पूर्ण करो।
भावार्थ - भावार्थ- तेजस्वी विज्ञानवेत्ता पुरुष राष्ट्र में यज्ञ विज्ञान को प्रतिष्ठित करें। यज्ञ कर्म की प्रत्येक क्रिया का विश्लेषण करके राष्ट्र तथा प्रजा जनों को तेजस्वी बनने का मार्ग प्रशस्त करें। और यह भी बतावें कि यज्ञ द्वारा ऐश्वर्य, अन्न, ज्ञान तथा आनन्द की वृद्धि होती है।
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