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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 42/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र ब्र॒ह्माणो॒ अङ्गि॑रसो नक्षन्त॒ प्र क्र॑न्द॒नुर्न॑भ॒न्य॑स्य वेतु। प्र धे॒नव॑ उद॒प्रुतो॑ नवन्त यु॒ज्याता॒मद्री॑ अध्व॒रस्य॒ पेशः॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ब्र॒ह्माणः॑ । अङ्गि॑रसः । न॒क्ष॒न्त॒ । प्र । क्र॒न्द॒नुः । न॒भ॒न्य॑स्य । वे॒तु॒ । प्र । धे॒नवः॑ । उ॒द॒ऽप्रुतः॑ । न॒व॒न्त॒ । यु॒ज्याता॑म् । अद्री॒ इति॑ । अ॒ध्व॒रस्य॑ । पेशः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र ब्रह्माणो अङ्गिरसो नक्षन्त प्र क्रन्दनुर्नभन्यस्य वेतु। प्र धेनव उदप्रुतो नवन्त युज्यातामद्री अध्वरस्य पेशः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। ब्रह्माणः। अङ्गिरसः। नक्षन्त। प्र। क्रन्दनुः। नभन्यस्य। वेतु। प्र। धेनवः। उदऽप्रुतः। नवन्त। युज्याताम्। अद्री इति। अध्वरस्य। पेशः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 42; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 9; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    पदार्थ - (अङ्गिरसः) = देह में प्राणवत्, तेजस्वी (ब्रह्माणः) = वेदज्ञ पुरुष (प्र नक्षन्त) = आया करें। (क्रन्दनुः नभन्यस्य) = जैसे मेघ वायु के वेग को प्राप्त करता है वैसे ही (क्रन्दनु:) = उपदेष्टा पुरुष (नमन्यस्य वेतु) = स्तुतियोग्य प्रभु - ज्ञान का प्रकाश करे। (क्रन्दनुः) = रोदनशील, कोमल प्रकृति स्त्री (नभन्यस्य वेतु) = सम्बन्ध योग्य पुरुष का आश्रय करे। (उदप्रुतः) = जल पूर्ण नदियों के तुल्य (धेनवः) = वाणियाँ और गौएँ (प्र नवन्त) = प्रभु की स्तुति करें और (अद्री) = पर्वतवत् स्थिर स्त्री-पुरुष (अध्वरस्य वेशः) = अहिंसामय यज्ञ के स्वरूप को (प्र युज्याताम्) = सम्पन्न करें।

    भावार्थ - भावार्थ- वेद के विद्वान् उपदेष्टा पुरुष हमारे पास आया करें तथा प्राण साधना सिखाकर स्तुति के योग्य प्रभु के ज्ञान का प्रकाश करें। सभी स्त्री-पुरुष अहिंसामय यज्ञ के स्वरूप को सम्पन्न करते हुए वेदवाणियों से ईश्वर की स्तुति किया करें।

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