ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
प्र वो॑ य॒ज्ञेषु॑ देव॒यन्तो॑ अर्च॒न्द्यावा॒ नमो॑भिः पृथि॒वी इ॒षध्यै॑। येषां॒ ब्रह्मा॒ण्यस॑मानि॒ विप्रा॒ विष्व॑ग्वि॒यन्ति॑ व॒निनो॒ न शाखाः॑ ॥१॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । य॒ज्ञेषु॑ । दे॒व॒ऽयन्तः॑ । अ॒र्च॒न् । द्यावा॑ । नमः॑ऽभिः । पृ॒थि॒वी इति॑ । इ॒षध्यै॑ । येषा॑म् । ब्रह्मा॑णि । अस॑मानि । विप्राः॑ । विष्व॑क् । वि॒ऽयन्ति॑ । व॒निनः॑ । न । शाखाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो यज्ञेषु देवयन्तो अर्चन्द्यावा नमोभिः पृथिवी इषध्यै। येषां ब्रह्माण्यसमानि विप्रा विष्वग्वियन्ति वनिनो न शाखाः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वः। यज्ञेषु। देवऽयन्तः। अर्चन्। द्यावा। नमःऽभिः। पृथिवी इति। इषध्यै। येषाम्। ब्रह्माणि। असमानि। विप्राः। विष्वक्। विऽयन्ति। वनिनः। न। शाखाः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - ज्ञान का प्रसार
पदार्थ -
पदार्थ- (यज्ञेषु) = सत्संगों, दान आदि कार्यों में (वः) = आप लोगों में (द्यावा पृथिवी) = आकाश और भूमि को (इषध्यै) = जानने के लिये (देवयन्तः) = विद्वानों की (नमोभिः) = विनयों और अन्नादि से (प्र अर्चन्) = अच्छी प्रकार अर्चना करते हैं (येषां) = जिनके (ब्रह्माणि) = ज्ञान और धनैश्वर्य (असमानि) = सबसे अधिक हैं वे (विप्राः) = विद्वान् (वनिनः शाखाः न) = वृक्ष की शाखाओं के समान (विष्वग् वियन्ति) = सब ओर जाते हैं।
भावार्थ - भावार्थ- आकाश में फैली सूर्य की किरणों के समान विद्वान् पुरुष सम्पूर्ण राष्ट्र में जाकर सत्संगों, यज्ञों व शिविरों के द्वारा ईश्वर आराधना, स्वास्थ्य साधना तथा वेद ज्ञान का जाप्रसार करें।
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