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ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
इ॒मा रु॒द्राय॑ स्थि॒रध॑न्वने॒ गिरः॑ क्षि॒प्रेष॑वे दे॒वाय॑ स्व॒धाव्ने॑। अषा॑ळ्हाय॒ सह॑मानाय वे॒धसे॑ ति॒ग्मायु॑धाय भरता शृ॒णोतु॑ नः ॥१॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माः । रु॒द्राय॑ । स्थि॒रऽध॑न्वने । गिरः॑ । क्षि॒प्रऽस॑वे । दे॒वाय॑ । स्व॒धाऽव्ने॑ । अषा॑ळ्हाय । सह॑मानाय । वे॒धसे॑ । ति॒ग्मऽआ॑यु॑धाय । भ॒र॒त॒ । शृ॒णोतु॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा रुद्राय स्थिरधन्वने गिरः क्षिप्रेषवे देवाय स्वधाव्ने। अषाळ्हाय सहमानाय वेधसे तिग्मायुधाय भरता शृणोतु नः ॥१॥
स्वर रहित पद पाठइमाः। रुद्राय। स्थिरऽधन्वने। गिरः। क्षिप्रऽइषवे। देवाय। स्वधाऽव्ने। अषाळ्हाय। सहमानाय। वेधसे। तिग्मऽआयुधाय। भरत। शृणोतु। नः ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - सेनापति के कर्त्तव्य
पदार्थ -
पदार्थ- हे विद्वान् पुरुषो ! (इमाः) = ये (गिरः) = उत्तम वाणियें, (स्थिर धन्वने) = स्थिर धनुषवाले, (क्षिप्रेषवे) = वेग से बाण चलाने में चतुर, (देवाय) = विजयेच्छुक, (स्वधाने) = राष्ट्र, जन और तन आदि की रक्षा में कुशल, (अषाढाय) = शत्रुओं से अपराजित (सहमानाय) = शत्रुओं को पराजित करनेवाले, (वेधसे) = कार्यों के विधान करनेवाले, (तिग्मायुधाय) = तीक्ष्ण शस्त्रास्त्रों के स्वामी, (रुद्राय) = दुष्टों को रुलानेवाले राजा के प्रति भरत कहो और वह (नः) = हमारे निवेदन (शृणोतु) = सुने ।
भावार्थ - भावार्थ- विद्वान् लोग राजा व सेनापति को उनके कर्त्तव्य का उपदेश करे कि तुम दृढ़ लक्ष्यभेदी, तीव्र अस्त्र चलाने में चतुर, राष्ट्र तथा प्रजाजन की रक्षा में कुशल व तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों के स्वामी बनो। तभी राष्ट्र सुरक्षित व समृद्ध बनेगा।
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