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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वैश्वानरः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र स॒म्राजो॒ असु॑रस्य॒ प्रश॑स्तिं पुं॒सः कृ॑ष्टी॒नाम॑नु॒माद्य॑स्य। इन्द्र॑स्येव॒ प्र त॒वस॑स्कृ॒तानि॒ वन्दे॑ दा॒रुं वन्द॑मानो विवक्मि ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । स॒म्ऽराजः॑ । असु॑रस्य । प्रऽश॑स्तिम् । पुं॒सः । कृ॒ष्टी॒नाम् । अ॒नु॒ऽमाद्य॑स्य । इन्द्र॑स्यऽइव । प्र । त॒वसः॑ । कृ॒तानि॑ । वन्दे॑ । दा॒रुम् । वन्द॑मानः । वि॒व॒क्मि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र सम्राजो असुरस्य प्रशस्तिं पुंसः कृष्टीनामनुमाद्यस्य। इन्द्रस्येव प्र तवसस्कृतानि वन्दे दारुं वन्दमानो विवक्मि ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। सम्ऽराजः। असुरस्य। प्रऽशस्तिम्। पुंसः। कृष्टीनाम्। अनुऽमाद्यस्य। इन्द्रस्यऽइव। प्र। तवसः। कृतानि। वन्दे। दारुम्। वन्दमानः। विवक्मि ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] मैं (दारुम्) = असुरों की पुरियों का विदारण करनेवाले प्रभु को (वन्दे) = वन्दित करता हूँ और (वन्दमानः) = वन्दना करता हुआ (कृतानि प्रविवक्मि) = उस वैश्वानर के कर्मों का प्रतिपादन करता हूँ। [२] उस प्रभु की (प्रशस्तिम्) = प्रशस्ति का, स्तुति का प्रतिपादन करता हूँ जो (सम्राजः) = सारे संसार के सम्राट् हैं। (असुरस्य) = [असून् राति] सर्वत्र प्राणशक्ति का संचार करनेवाले हैं। (पुंसः) = वीर हैं [पौंस्यं वीर्यम्]। (कृष्टीनाम्) = श्रमशील मनुष्यों के (अनुमाद्यस्य) = स्तुत्य हैं अथवा हर्ष के जनक हैं। (इन्द्रस्य इव) = इन्द्र के समान (प्रतवस:) = प्रकृष्ट बलवाले हैं। 'इन्द्र' व 'वैश्वानर' दोनों उस प्रभु के ही नाम हैं। सो जो 'इन्द्र' का बल है, वही 'वैश्वानर' का बल है। इस प्रभु की प्रशस्ति का मैं प्रतिपादन करता हूँ।

    भावार्थ - भावार्थ-वे प्रभु 'सम्राट्, असुर, पुमान, स्तुत्य व बलवान्' हैं। प्रभु के कर्मों का व प्रशस्ति का मैं उच्चारण करता हूँ। प्रभु ही तो मेरे आसुरभावों को विनष्ट करते हैं।

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