ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
प्रति॑ वां॒ सूर॒ उदि॑ते सू॒क्तैर्मि॒त्रं हु॑वे॒ वरु॑णं पू॒तद॑क्षम् । ययो॑रसु॒र्य१॒॑मक्षि॑तं॒ ज्येष्ठं॒ विश्व॑स्य॒ याम॑न्ना॒चिता॑ जिग॒त्नु ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । वा॒म् । सूरे॑ । उत्ऽइ॑ते । सु॒ऽउ॒क्तैः । मि॒त्रम् । हु॒वे॒ । वरु॑णम् । पू॒तऽद॑क्षम् । ययोः॑ । अ॒सु॒र्य॑म् । अक्षि॑तम् । ज्येष्ठ॑म् । विश्व॑स्य । याम॑न् । आ॒ऽचिता॑ । जि॒ग॒त्नु ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति वां सूर उदिते सूक्तैर्मित्रं हुवे वरुणं पूतदक्षम् । ययोरसुर्य१मक्षितं ज्येष्ठं विश्वस्य यामन्नाचिता जिगत्नु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । वाम् । सूरे । उत्ऽइते । सुऽउक्तैः । मित्रम् । हुवे । वरुणम् । पूतऽदक्षम् । ययोः । असुर्यम् । अक्षितम् । ज्येष्ठम् । विश्वस्य । यामन् । आऽचिता । जिगत्नु ॥ ७.६५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
विषय - राजा प्रजा के कर्त्तव्य
पदार्थ -
पदार्थ - (ययोः) = जिनका (अक्षितम्) = अविनाशी, (असुर्यम्) = प्राणों में रमण करनेवाले, 'असुर' अर्थात् जीवों के हितकारक, (ज्येष्ठं) = श्रेष्ठ बल (विश्वस्य) = सबको (जिगत्लु) = जीतनेवाला है वे दोनों (यामन्) = राज्यप्रबन्ध के कार्य में (आचिता) = आदर प्राप्त करने योग्य हों। (सूरे उदिते) = सूर्य तुल्य तेजस्वी पुरुष के उदय होने, वा सर्वोपरि पद प्राप्त कर लेने पर मैं (प्रजाजन वाम्) = आप दोनों नर नारी और राजा-प्रजा-वर्गों में से (पूतदक्षं) = पवित्र बल और (आचारवान् मित्रं) = सर्व स्नेही और (वरुणं) = श्रेष्ठ जन को (सूक्तै:) = उत्तम वचनों से प्रति हुवे प्रत्यक्ष रूप से स्वीकार करूँ।
भावार्थ - भावार्थ-राजा को योग्य है कि वह प्रजा के हितकारी श्रेष्ठ कर्मपरायण पुरुषों व स्त्रियों को राज्य प्रबन्ध के कार्य हेतु उन्नत व सर्वोपरि पदों पर नियुक्त करे। प्रजा जन ऐसे तेजस्वी पवित्र आचारवान् पदाधिकारियों का सम्मान करें तथा आज्ञापालन में रहकर अनुशासन बनावें।
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