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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - वरुणः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    रद॑त्प॒थो वरु॑ण॒: सूर्या॑य॒ प्रार्णां॑सि समु॒द्रिया॑ न॒दीना॑म् । सर्गो॒ न सृ॒ष्टो अर्व॑तीॠता॒यञ्च॒कार॑ म॒हीर॒वनी॒रह॑भ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    रद॑त् । प॒थः । वरु॑णः । सूर्या॑य । प्र । अर्णां॑सि । स॒मु॒द्रिया॑ । न॒दीना॑म् । सर्गः॑ । न । सृ॒ष्टः । अर्व॑तीः । ऋ॒त॒ऽयन् । च॒कार॑ । म॒हीः । अ॒वनीः॑ । अह॑ऽभ्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    रदत्पथो वरुण: सूर्याय प्रार्णांसि समुद्रिया नदीनाम् । सर्गो न सृष्टो अर्वतीॠतायञ्चकार महीरवनीरहभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    रदत् । पथः । वरुणः । सूर्याय । प्र । अर्णांसि । समुद्रिया । नदीनाम् । सर्गः । न । सृष्टः । अर्वतीः । ऋतऽयन् । चकार । महीः । अवनीः । अहऽभ्यः ॥ ७.८७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 87; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 9; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    पदार्थ- (वरुणः) = व्यापक परमेश्वर( सूर्याय) = सूर्य के (पथः) = मार्गों को (रदत्) = बनाता है। वही (समुद्रिया) = समुद्र की ओर जानेवाली (नदीनां अर्णासि) = नदियों के जलों को बहाता है। (सर्गः न सृष्ट: अर्वतीः ऋतायन्) = जैसे बरसा हुआ जल नीची, बहती नदियों की ओर जाता है वैसे (सर्गः) = जगत् का बनानेवाला (सृष्टः) = जगत् का स्वामी (अर्वतीः) = अधीन महती शक्तियों और प्रकृति की विकृतियों को (ऋतायन्) = ज्ञानपूर्वक सञ्चालित करता हुआ (अहभ्यः महीः अवनी: चकार) = दिनों से रात्रियों को पृथक् करता है।

    भावार्थ - भावार्थ - जब व्यक्ति सूर्य के उदय से अस्ताचल की ओर जाना, नदियों का समुद्र की ओर बहना, दिन का प्रकाशित और रात्रि का अन्धकारमय होना देखता है तो प्रश्न होता है कि यह सब कौन कर रहा है? उत्तर में केवल वरुण परमेश्वर ही आता है।

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