ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 102/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः ; अथवाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः सुतौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वम॑ग्ने बृ॒हद्वयो॒ दधा॑सि देव दा॒शुषे॑ । क॒विर्गृ॒हप॑ति॒र्युवा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । बृ॒हत् । वयः॑ । दधा॑सि । दे॒व॒ । दा॒शुषे॑ । क॒विः । गृ॒हऽप॑तिः । युवा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने बृहद्वयो दधासि देव दाशुषे । कविर्गृहपतिर्युवा ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । अग्ने । बृहत् । वयः । दधासि । देव । दाशुषे । कविः । गृहऽपतिः । युवा ॥ ८.१०२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 102; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - बृहद् वयः
पदार्थ -
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी, (देव) = प्रकाशमय प्रभो ! (त्वम्) = आप (दाशुषे) = आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाले पुरुष के लिये (बृहद् वयः) = वृद्धियुक्त आयुष्य (दधासि) = धारण करते हैं। जो भी आपके प्रति अपने को दे डालता है, इसे वह जीवन प्राप्त कराते हैं, जो सब दृष्टिकोणों से बढ़ा हुआ होता है। । [२] कविः = आप क्रान्तदर्शी है, सब विद्याओं का ज्ञान देनेवाले हैं। गृहपतिः - हमारे शरीररूप गृहों के रक्षक हैं। युवा - सदा बुराइयों को पृथक् करनेवाले व अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले हैं [यु मिश्रणामिश्रणयोः] ।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें। प्रभु हमारे लिये वृद्धियुक्त दीर्घजीवन को प्राप्त कराते हैं। वे सब ज्ञानों को देनेवाले, शरीर गृहों के रक्षक व हमारी सब बुराइयों को दूर करके अच्छाइयों को हमारे साथ मिलानेवाले हैं।
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