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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्षीगायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒दं व॑सो सु॒तमन्ध॒: पिबा॒ सुपू॑र्णमु॒दर॑म् । अना॑भयिन्ररि॒मा ते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । व॒सो॒ इति॑ । सु॒तम् । अन्धः॑ । पिब॑ । सुऽपू॑र्णम् । उ॒दर॑म् । अना॑भयिन् । र॒रि॒म । ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं वसो सुतमन्ध: पिबा सुपूर्णमुदरम् । अनाभयिन्ररिमा ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । वसो इति । सुतम् । अन्धः । पिब । सुऽपूर्णम् । उदरम् । अनाभयिन् । ररिम । ते ॥ ८.२.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 17; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] प्रभु जीव से कहता है कि हे (वसो) = अपने निवास को उत्तम बनानेवाले उपासक (इदम्) = यह (अन्ध:) = सोमलक्षण अन्न (सुतम्) = तेरे लिये उत्पन्न किया गया है। इसको तू (सुपूर्णं उदरम्) = उदर को पूर्ण करता हुआ (पिबा) = अपने में पीनेवाला बन, अपने अन्दर इसे तू सुरक्षित कर । [२] सोमरक्षण के द्वारा सब प्रकार के रोगों के भय से ऊपर उठे हुए (अनाभयिन्) = अभयता को प्राप्त उपासक! (ते) = तेरे लिये (ररिमा) = इस सोम को देते हैं। यह शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ तेरे कल्याण का साधक हो।

    भावार्थ - भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम [क] रोगों से ऊपर उठाकर हमें उत्तम निवासवाला बनाता है, [ख] तथा यह सोमरक्षण हमें काम-क्रोध आदि के आक्रमण के भय से दूर रखता है।

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