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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - मरूतः छन्दः - ककुबुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    आ ग॑न्ता॒ मा रि॑षण्यत॒ प्रस्था॑वानो॒ माप॑ स्थाता समन्यवः । स्थि॒रा चि॑न्नमयिष्णवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ग॒न्ता॒ । मा । रि॒ष॒ण्य॒त॒ । प्रऽस्था॑वानः । मा । अप॑ । स्था॒त॒ । स॒ऽम॒न्य॒वः॒ । स्थि॒रा । चि॒त् । न॒म॒यि॒ष्ण॒वः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ गन्ता मा रिषण्यत प्रस्थावानो माप स्थाता समन्यवः । स्थिरा चिन्नमयिष्णवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । गन्ता । मा । रिषण्यत । प्रऽस्थावानः । मा । अप । स्थात । सऽमन्यवः । स्थिरा । चित् । नमयिष्णवः ॥ ८.२०.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 20; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 36; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे प्राणो ! (आगन्त) = तुम हमें प्राप्त होवो । (मा रिषण्यत) = हमें किसी भी रोग आदि से हिंसित न होने दो। (प्रस्थावानः) = निरन्तर प्रस्थानवाले, निरन्तर गतिशील आप (मा अपस्थात) = हमारे से दूर मत होवो । (समन्यवः) = आप सब, प्राण, अपान, व्यान आदि भेद से अनेक रूपों में काम करनेवाले, (समन्यवः) = समानरूप से तेजस्वी होवो [spirit, mettle, courage]। [२] हे प्राणो ! आप (स्थिरा चित्) = बड़े दृढमूल भी 'रोग व काम-क्रोध-लोभ' आदि शत्रुओं को (नमयिष्णवः) = झुका देनेवाले होवो। आपकी कार्यशक्ति से हम नीरोग बनें।

    भावार्थ - भावार्थ- प्राणशक्ति हमें नीरोग व शान्त जीवनवाला बनाती है।

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