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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    व॒यमु॒ त्वाम॑पूर्व्य स्थू॒रं न कच्चि॒द्भर॑न्तोऽव॒स्यव॑: । वाजे॑ चि॒त्रं ह॑वामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒यम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वाम् । अ॒पू॒र्व्य॒ । स्थू॒रम् । न । कत् । चि॒त् । भर॑न्तः । अ॒व॒स्यवः॑ । वाजे॑ । चि॒त्रम् । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयमु त्वामपूर्व्य स्थूरं न कच्चिद्भरन्तोऽवस्यव: । वाजे चित्रं हवामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । ऊँ इति । त्वाम् । अपूर्व्य । स्थूरम् । न । कत् । चित् । भरन्तः । अवस्यवः । वाजे । चित्रम् । हवामहे ॥ ८.२१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 21; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे (अपूर्व्य) = अद्भुत, अनुमय दिव्यगुणोंवाले प्रभो ! (अवस्यवः) = रक्षण की कामनावाले (वयम्) = हम (उ) = निश्चय से (कञ्चित्) = किसी (स्थूरं न) = दृढ़ आश्रय के समान (त्वाम्) = आपको (भरन्तः) = अपने में भरण करनेवाले होते हैं, आपका हम धारण करते हैं। आपका धारण ही हमारी शक्तियों व रक्षण का साधन बनता है। [२] (वाजे) = सब संग्रामों में (चित्रम्) = अद्भुत शक्ति सम्पन्न आपको ही हम (हवामहे) = पुकारते हैं। आपके द्वारा ही शक्ति सम्पन्न होकर हम संग्रामों में विजयी बन पायेंगे।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु ही इस संसार संघर्ष में हमारे दृढ़ आश्रय हैं। वे ही हमें संग्रामों में विजयी बनानेवाले हैं। उन अद्भुत शक्ति सम्पन्न प्रभु को हम पुकारते हैं।

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