ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ओ त्यम॑ह्व॒ आ रथ॑म॒द्या दंसि॑ष्ठमू॒तये॑ । यम॑श्विना सुहवा रुद्रवर्तनी॒ आ सू॒र्यायै॑ त॒स्थथु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठओ इति॑ । त्यम् । अ॒ह्वे॒ । आ । रथ॑म् । अ॒द्य । दंसि॑ष्ठम् । ऊ॒तये॑ । यम् । अ॒श्वि॒ना॒ । सु॒ऽह॒वा॒ । रु॒द्र॒ऽव॒र्त॒नी॒ इति॑ रुद्रऽवर्तनी । आ । सू॒र्यायै॑ । त॒स्थथुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ओ त्यमह्व आ रथमद्या दंसिष्ठमूतये । यमश्विना सुहवा रुद्रवर्तनी आ सूर्यायै तस्थथु: ॥
स्वर रहित पद पाठओ इति । त्यम् । अह्वे । आ । रथम् । अद्य । दंसिष्ठम् । ऊतये । यम् । अश्विना । सुऽहवा । रुद्रऽवर्तनी इति रुद्रऽवर्तनी । आ । सूर्यायै । तस्थथुः ॥ ८.२२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - सुहवा रुद्रवर्तनी [अश्विना]
पदार्थ -
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (अद्य) = आज (त्यम्) = उस (आदंसिष्ठम्) = अत्यन्त दर्शनीय व उत्तम कर्मोंवाले (रथम्) = शरीररूप रथ को (उ) = ही आ अह्वे सर्वथा पुकारता हूँ, (यम्) = जिस रथ पर आप (सूर्यायै) = सूर्य के लिये (आतस्थथुः) = स्थित होते हो। मुझे भी ऐसा शरीर-रथ मिले, जिसके द्वारा मैं शत्रुओं का संहार करता हुआ ज्ञान वृद्धि से ब्रह्म को प्राप्त होनेवाला बनूँ। [२] हे प्राणापानो ! आप (सुहवा) = शोभनवालों का आह्वान करनेवाले हों, सब शुभों को शरीर में प्राप्त कराते हो । (रुद्रवर्तनी) = [रुत्+द्र+वर्तनि] आपका मार्ग सब रोगों का द्रावण करनेवाला है। सब रोगों को दूर भगाते हुए आप (ऊतये) = रक्षण के लिये होते हो।
भावार्थ - भावार्थ-प्राणसाधना के द्वारा यह शरीर रथ दर्शनीय व उत्तम कर्मोंवाला बनता है। प्राणापान इस शरीर में शोभनता का आह्वान करते हैं, रोगों को दूर करते हैं तथा सूर्यसम ज्ञान - ज्योति को प्राप्त कराते हैं।
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