ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वो व्यश्वो वाङ्गिरसः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
यु॒वोरु॒ षू रथं॑ हुवे स॒धस्तु॑त्याय सू॒रिषु॑ । अतू॑र्तदक्षा वृषणा वृषण्वसू ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वोर् ऊँ॒ इति॑ । सु । रथ॑म् । हु॒वे॒ । स॒धऽस्तु॑त्याय । सू॒रिषु॑ । अतू॑र्तऽदक्षा । वृ॒ष॒णा॒ । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवोरु षू रथं हुवे सधस्तुत्याय सूरिषु । अतूर्तदक्षा वृषणा वृषण्वसू ॥
स्वर रहित पद पाठयुवोर् ऊँ इति । सु । रथम् । हुवे । सधऽस्तुत्याय । सूरिषु । अतूर्तऽदक्षा । वृषणा । वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू ॥ ८.२६.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - अतूर्तदक्षा [अश्विना ]
पदार्थ -
[१] हे अश्विनौ [प्राणापानो] ! (युवो:) = आप के निश्चय से (रथम्) = इस शरीररूप रथ को (सु हुवे) = सम्यक् पुकारता हूँ। (सूरिषु) = ज्ञानी पुरुषों में (सधस्तुत्याय) = मिलकर स्तुति करने योग्य उस प्रभु की प्राप्ति के लिये । प्रभु की प्राप्ति इस प्राणापान के रथ के द्वारा ही होती है। अर्थात् प्राणायाम द्वारा चित्तवृत्ति निरोध के होने पर ही प्रभु का साक्षात्कार होता है। इस प्रभु का ज्ञानी लोग मिलकर स्तवन करते हैं। [२] ये प्राणापान (अतूर्तदक्षा) = अहिंसित बलवाले, (वृषणा) = शक्तिशाली व (वृषण्वसू) = सुखों के वर्षक धनवाले हैं। प्राणसाधना के द्वारा वह बल प्राप्त होता है, जो किन्हीं भी आन्तर शत्रुओं से हिंसित नहीं होता। ये हमें बलवान् बनाते हैं और उन सब वसुओं को प्राप्त कराते हैं, जो हमारे जीवन में सुखों का वर्षण करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ-प्राणसाधना के होने पर ज्ञानी पुरुष मिलकर प्रभु का स्तवन करते हैं। ये प्राणापान अहिंसित बलवाले, शक्तिशाली व सुखवर्षक वसुओंवाले हैं।
इस भाष्य को एडिट करें