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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 37/ मन्त्र 1
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडतिजगती स्वरः - निषादः

    प्रेदं ब्रह्म॑ वृत्र॒तूर्ये॑ष्वाविथ॒ प्र सु॑न्व॒तः श॑चीपत॒ इन्द्र॒ विश्वा॑भिरू॒तिभि॑: । माध्यं॑दिनस्य॒ सव॑नस्य वृत्रहन्ननेद्य॒ पिबा॒ सोम॑स्य वज्रिवः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । इ॒दम् । ब्रह्म॑ । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑षु । आ॒वि॒थ॒ । प्र । सु॒न्व॒तः । श॒ची॒ऽप॒ते॒ । इन्द्र॑ । विश्वा॑भिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । माध्य॑न्दिनस्य । सव॑नस्य । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अ॒ने॒द्य॒ । पिब॑ । सोम॑स्य । व॒ज्रि॒ऽवः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेदं ब्रह्म वृत्रतूर्येष्वाविथ प्र सुन्वतः शचीपत इन्द्र विश्वाभिरूतिभि: । माध्यंदिनस्य सवनस्य वृत्रहन्ननेद्य पिबा सोमस्य वज्रिवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । इदम् । ब्रह्म । वृत्रऽतूर्येषु । आविथ । प्र । सुन्वतः । शचीऽपते । इन्द्र । विश्वाभिः । ऊतिऽभिः । माध्यन्दिनस्य । सवनस्य । वृत्रऽहन् । अनेद्य । पिब । सोमस्य । वज्रिऽवः ॥ ८.३७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 37; मन्त्र » 1
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप (वृत्रतूर्येषु) = वासना के विनाशवाले संग्रामों में (इदं ब्रह्म) = इस ज्ञान का (प्र आविथ) = प्रकर्षेण रक्षण करते हैं। हे (शचीपते) = प्रज्ञा व कर्मों के स्वामिन् प्रभो ! आप (विश्वाभिः ऊतिभिः) = सब रक्षणों के द्वारा (सुन्वतः) = सोमाभिषव करनेवाले इस पुरुष का प्र [ आविथ] रक्षण करते हैं। [२] हे (वृत्रहन्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाले, (अनेद्य) = अनिन्दनीय-पापरहित (वज्रिवः) = वज्रहस्त प्रभो! आप माध्यन्दिनस्य (सवनस्य) = हमारे जीवन के माध्यन्दिन-सवन सम्बन्धी, अर्थात् २५ से ६८ वर्ष तक चलनेवाले गृहस्थ यज्ञ सम्बन्धी (सोमस्य पिबा) = सोम का पान करिये। आपकी कृपा से हम यौवन में भी, संयमी जीवन के बनकर वीर्यशक्ति को सुरक्षित करनेवाले हों।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु सोमरक्षक पुरुष के ज्ञान का रक्षण करते हैं। प्रभु कृपा से ही हम यौवन में भी संयमी जीवनवाले बनकर सोम का रक्षण कर पाते हैं।

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