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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 37 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 37/ मन्त्र 7
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    श्या॒वाश्व॑स्य॒ रेभ॑त॒स्तथा॑ शृणु॒ यथाशृ॑णो॒रत्रे॒: कर्मा॑णि कृण्व॒तः । प्र त्र॒सद॑स्युमाविथ॒ त्वमेक॒ इन्नृ॒षाह्य॒ इन्द्र॑ क्ष॒त्राणि॑ व॒र्धय॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्या॒वऽअ॑श्वस्य । रेभ॑तः । तथा॑ । शृ॒णु॒ । यथा॑ । अशृ॑णोः । अत्रेः॑ । कर्मा॑णि । कृ॒ण्व॒तः । प्र । त्र॒सद॑स्युम् । आ॒वि॒थ॒ । त्वम् । एकः॑ । इत् । नृ॒ऽसह्ये॑ । इन्द्र॑ । ब्रह्मा॑णि । व॒र्धय॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्यावाश्वस्य रेभतस्तथा शृणु यथाशृणोरत्रे: कर्माणि कृण्वतः । प्र त्रसदस्युमाविथ त्वमेक इन्नृषाह्य इन्द्र क्षत्राणि वर्धयन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्यावऽअश्वस्य । रेभतः । तथा । शृणु । यथा । अशृणोः । अत्रेः । कर्माणि । कृण्वतः । प्र । त्रसदस्युम् । आविथ । त्वम् । एकः । इत् । नृऽसह्ये । इन्द्र । ब्रह्माणि । वर्धयन् ॥ ८.३७.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 37; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    [१] हे (इन्द्र) = सर्वशत्रुविद्रावक प्रभो ! आप (श्यावाश्वस्य) = गतिशील इन्द्रियाश्वोंवाले (रेभतः) = स्तोता की प्रार्थना को तथा (शृणु) = उस प्रकार सुनिए, (यथा) = जैसे (कर्माणि कृण्वतः) = कर्मों को करते हुए (अत्रे:) = काम-क्रोध-लोभ-तीनों से रहित पुरुष की प्रार्थना को (अशृणोः) = सुनते हैं । [२] हे प्रभो ! (त्वम् एकः इत्) = आप अकेले ही (क्षत्राणि वर्धयन्) = बलों को बढ़ाते हुए, (नृषाह्ये) = संग्राम में (त्रसदस्युम्) = वासनाओं को भयभीत करनेवाले पुरुष को (प्र आविथ) = प्रकर्षेण रक्षित करते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु क्रियाशील स्तोता की प्रार्थना को सुनते हैं। यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त 'काम- क्रोध-लोभ' से शून्य पुरुष की प्रार्थना को सुनते हैं। हे प्रभो ! आप संग्रामों में हमारे बलों का वर्धन करते हुए हमें त्रसदस्यु = [जिससे शत्रु भयभीत हों] बनाते हैं और हमारा रक्षण करते हैं। अगले सूक्त में 'श्यावाश्व' ऋषि 'इन्द्राग्नी' का स्तवन व आराधन करते हैं-

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