ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
तो॒शासा॑ रथ॒यावा॑ना वृत्र॒हणाप॑राजिता । इन्द्रा॑ग्नी॒ तस्य॑ बोधतम् ॥
स्वर सहित पद पाठतो॒षासा॑ । र॒थ॒ऽयावा॑ना । वृ॒त्र॒ऽहना॑ । अप॑राऽजिता । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । तस्य॑ । बो॒ध॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तोशासा रथयावाना वृत्रहणापराजिता । इन्द्राग्नी तस्य बोधतम् ॥
स्वर रहित पद पाठतोषासा । रथऽयावाना । वृत्रऽहना । अपराऽजिता । इन्द्राग्नी इति । तस्य । बोधतम् ॥ ८.३८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 38; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
विषय - 'रोगों व वासनाओं के विनाशक' इन्द्राग्नी
पदार्थ -
[१] ये (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्नि (तोशासा) = रोगरूप शत्रुओं का संहार करनेवाले व (रथयावाना) = इस शरीररथ को लक्ष्य स्थान की ओर ले चलनेवाले हैं। रोग यात्रा में विघ्न पैदा कर देते हैं और आगे बढ़ना रुक जाता है। ये बल व प्रकाश के दिव्यभाव रोगों को समाप्त करके हमें आगे बढ़ाते हैं। [२] ये (वृत्रहण) = ज्ञान की आवरण कामवासना को नष्ट करनेवाले हैं और (अपराजिता) = कभी पराजित होनेवाले नहीं। ये इन्द्र और अग्नि (तस्य) = हमारे उस जीवनयज्ञ का (बोधतम्) = ध्यान करें-उसे सम्यक् परिपूर्ण करें।
भावार्थ - भावार्थ:- बल व प्रकाश के दिव्य भाव रोगों को नष्ट कर शरीररथ को लक्ष्य स्थान की ओर ले चलते हैं। ये वासना को नष्ट करते हैं और कभी काम-क्रोध आदि से पराजित नहीं होते।
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