ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 48/ मन्त्र 15
त्वं न॑: सोम वि॒श्वतो॑ वयो॒धास्त्वं स्व॒र्विदा वि॑शा नृ॒चक्षा॑: । त्वं न॑ इन्द ऊ॒तिभि॑: स॒जोषा॑: पा॒हि प॒श्चाता॑दु॒त वा॑ पु॒रस्ता॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । नः॒ । सो॒म॒ । वि॒श्वतः॑ । व॒यः॒ऽधाः । त्वम् । स्वः॒ऽवित् । आ । वि॒श॒ । नृ॒ऽचक्षाः॑ । त्वम् । नः॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । ऊ॒तिऽभिः॑ । स॒ऽजोषाः॑ । पा॒हि । प॒श्चाता॑त् । उ॒त । वा॒ । पु॒रस्ता॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं न: सोम विश्वतो वयोधास्त्वं स्वर्विदा विशा नृचक्षा: । त्वं न इन्द ऊतिभि: सजोषा: पाहि पश्चातादुत वा पुरस्तात् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । नः । सोम । विश्वतः । वयःऽधाः । त्वम् । स्वःऽवित् । आ । विश । नृऽचक्षाः । त्वम् । नः । इन्दो इति । ऊतिऽभिः । सऽजोषाः । पाहि । पश्चातात् । उत । वा । पुरस्तात् ॥ ८.४८.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 48; मन्त्र » 15
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
विषय - वयोधाः स्वर्वित्
पदार्थ -
[१] हे (सोम) = वीर्य ! (त्वं) = तू (नः) = हमारे लिए (विश्वतः) सब दृष्टिकोणों से (वयोधाः) = उत्कृष्ट जीवन को धारण करनेवाला है। (त्वं) = तू ही (स्ववित्) = प्रकाश को प्राप्त करानेवाला है। (नृचक्षाः) = मनुष्यों का ध्यान करनेवाला तू (आविश) = शरीर में सब अंगों में प्रवेशवाला हो। [२] हे (इन्दो) = सोम ! (त्वं) = तू (नः) = हमारे लिए (ऊतिभिः) = [ऊतयः - महतः प्राणाः] प्राणों के साथ (सजोषाः) = संगत हुआ-हुआ उनके साथ (प्रीयमाण) = होता हुआ (पश्चातात्) = पीछे से (उत वा) = अथवा (पुरस्तात्) = आगे से (पाहि) = रक्षित करनेवाला हो।
भावार्थ - भावार्थ:- सुरक्षित सोम उत्कृष्ट जीवन को व प्रकाश को प्राप्त कराता है। यह प्राणों के साथ हमारा सर्वतः रक्षण करता है। सोमरक्षण के उद्देश्य से ही अगले सूक्त में 'इन्द्र' का उपासन है। इस उपासन को करनेवाला मेधावी 'प्रस्कण्व काण्व' सूक्त का ऋषि है-
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