ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 59/ मन्त्र 7
ऋषिः - सुपर्णः काण्वः
देवता - इन्द्रावरुणौ
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
इन्द्रा॑वरुणा सौमन॒समदृ॑प्तं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानेषु धत्तम् । प्र॒जां पु॒ष्टिं भू॑तिम॒स्मासु॑ धत्तं दीर्घायु॒त्वाय॒ प्र ति॑रतं न॒ आयु॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑वरुणा । सौ॒म॒न॒सम् । अदृ॑प्तम् । रा॒यः । पोष॑म् । यज॑मानेषु । ध॒त्त॒म् । प्र॒ऽजाम् । पु॒ष्टिम् । भू॒ति॒म् । अ॒स्मासु॑ । ध॒त्त॒म् । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । प्र । ति॒र॒त॒म् । नः॒ । आयुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रावरुणा सौमनसमदृप्तं रायस्पोषं यजमानेषु धत्तम् । प्रजां पुष्टिं भूतिमस्मासु धत्तं दीर्घायुत्वाय प्र तिरतं न आयु: ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रावरुणा । सौमनसम् । अदृप्तम् । रायः । पोषम् । यजमानेषु । धत्तम् । प्रऽजाम् । पुष्टिम् । भूतिम् । अस्मासु । धत्तम् । दीर्घायुऽत्वाय । प्र । तिरतम् । नः । आयुः ॥ ८.५९.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 59; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
विषय - सौमनसम्, अदृप्तं रायस्पोषम्
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्रावरुणा) = जितेन्द्रियता व निर्देषता के दिव्यभावो ! (यजमानेषु) = यज्ञशील पुरुषों में (सौमनसं) = उत्तम मन को और (अदृप्तं) = गर्व से शून्य (रायस्पोषं) = धन के पोषण को (धत्तम्) = धारण कीजिए । इन्द्र और वरुण की कृपा से हम यज्ञशील बनकर उत्तम मनवाले व विनीततायुक्त श्री वाले बनें। [२] हे इन्द्रावरुणा ! आप (प्रजां) = उत्तम सन्तान को, (पुष्टिं) = शरीर की दृढ़ता को और (भूतिम्) = ऐश्वर्य को (अस्मासु) [धत्तम्] = हमारे में धारण करिये और (दीर्घायुत्वाय) = दीर्घजीवन के लिए (नः आयुः) = हमारी आयु को (प्रतिरतं) = बढ़ाइए।
भावार्थ - भावार्थ- जितेन्द्रियता व निर्देषता के द्वारा हम उत्तम मन, गर्वशून्य धन, प्रजा, पुष्टि व ऐश्वर्य को प्राप्त करें व दीर्घजीवी बनें। इन्द्र व वरुण की आराधना से यह उपासक तेजस्वी बनता है, सो 'भर्गः ' नामवाला होता है। प्रभु के गुणों का गायन करने से यह 'प्रागाथ' है। यह 'अग्नि' नाम से प्रभु का आराधन करता है -
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