ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
उत्त्वा॑ मन्दन्तु॒ स्तोमा॑: कृणु॒ष्व राधो॑ अद्रिवः । अव॑ ब्रह्म॒द्विषो॑ जहि ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । त्वा॒ । म॒न्द॒न्तु॒ । स्तोमाः॑ । कृ॒णु॒ष्व । राधः॑ । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । अव॑ । ब्र॒ह्म॒ऽद्विषः॑ । ज॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्त्वा मन्दन्तु स्तोमा: कृणुष्व राधो अद्रिवः । अव ब्रह्मद्विषो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । त्वा । मन्दन्तु । स्तोमाः । कृणुष्व । राधः । अद्रिऽवः । अव । ब्रह्मऽद्विषः । जहि ॥ ८.६४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 64; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 44; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 44; मन्त्र » 1
विषय - धन व सत्संग
पदार्थ -
[१] हे (अद्रिवः) = आदरणीय प्रभो ! (त्वा) = आपको (स्तोमा:) = हमारे से की जानेवाली स्तुतियाँ (उत् मन्दन्तु) = उत्कर्षेण आनन्दित करें। ये स्तोत्र हमें आपका प्रिय बनाएँ। आप हमारे लिए (राधः कृणुष्व) = कार्यसाधक धनों को कीजिए । [२] (ब्रह्मद्विषः) = ज्ञान से अप्रीतिवाले लोगों को (अवजहि) = हमारे से दूर करिये। हमें ज्ञानी लोगों का ही सम्पर्क प्राप्त हो । मूर्खों के सम्पर्क से हम सदा दूर रहें ।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभुस्तवन करते हुए कार्यसाधक धनों को प्राप्त करें और ज्ञानियों के सम्पर्क में रहें।
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