ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
प्र यद्व॑स्त्रि॒ष्टुभ॒मिषं॒ मरु॑तो॒ विप्रो॒ अक्ष॑रत् । वि पर्व॑तेषु राजथ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । यत् । वः॒ । त्रि॒ऽस्तुभ॑म् । इष॑म् । मरु॑तः । विप्रः॑ । अक्ष॑रत् । वि । पर्व॑तेषु । रा॒ज॒थ॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र यद्वस्त्रिष्टुभमिषं मरुतो विप्रो अक्षरत् । वि पर्वतेषु राजथ ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । यत् । वः । त्रिऽस्तुभम् । इषम् । मरुतः । विप्रः । अक्षरत् । वि । पर्वतेषु । राजथ ॥ ८.७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - त्रिष्टुभ् इष्
पदार्थ -
[१] हे (मरुतः) = प्राणो ! (यद्) = जब (विप्रः) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाला व्यक्ति (वः) = आपके द्वारा (त्रिष्टुभम्) = ' काम-क्रोध-लोभ' तीनों को रोक देनेवाली [त्रि स्तुभ्] (इषम्) = प्रभु प्रेरणा को (प्र अक्षरत्) = अपने में प्रकर्षेण संचलित करता है, अर्थात् प्राणायाम द्वारा शुद्ध हृदय में प्रभु प्रेरणा को सुनने का प्रयत्न करता है, तो आप इन (पर्वतेषु) = [पर्व पूरणे] अपना पूरण करनेवाले लोगों में (विराजथ) = विशेषरूप से शोभायमान होते हो। इन प्राणसाधकों में प्राण विशिष्ट शोभावाले होते हैं। अर्थात् इनका जीवन बहुत ही सुन्दर बन जाता है। [२] प्राणसाधना 'शरीर, हृदय व मस्तिष्क' तीनों को क्रमशः नीरोग, निर्मल व तीव्र बनाती है। यही पुरुष प्रभु प्रेरणा को सुनने का पात्र बनता है। प्रभु प्रेरणा उसके 'काम-क्रोध-लोभ' आदि असुरभावों को विनष्ट करनेवाली होती है।
भावार्थ - भावार्थ - प्राणसाधन से पवित्र हुए हुए हृदयों में प्रभु प्रेरणा सुनाई पड़ती है। वह इसके [काम-क्रोध-लोभरूप] तीनों दोषों को रोकनेवाली होती है।
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