ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
यो राजा॑ चर्षणी॒नां याता॒ रथे॑भि॒रध्रि॑गुः । विश्वा॑सां तरु॒ता पृत॑नानां॒ ज्येष्ठो॒ यो वृ॑त्र॒हा गृ॒णे ॥
स्वर सहित पद पाठयः । राजा॑ । च॒र्षणी॒नाम् । याता॑ । रथे॑भिः । अध्रि॑ऽगुः । विश्वा॑साम् । त॒रु॒ता । पृत॑नानाम् । ज्येष्ठः॑ । यः । वृ॒त्र॒ऽहा । गृ॒णे ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो राजा चर्षणीनां याता रथेभिरध्रिगुः । विश्वासां तरुता पृतनानां ज्येष्ठो यो वृत्रहा गृणे ॥
स्वर रहित पद पाठयः । राजा । चर्षणीनाम् । याता । रथेभिः । अध्रिऽगुः । विश्वासाम् । तरुता । पृतनानाम् । ज्येष्ठः । यः । वृत्रऽहा । गृणे ॥ ८.७०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
विषय - 'ज्येष्ठः वृत्रहा' प्रभु
पदार्थ -
[१] मैं उस प्रभु का (गृणे) = स्तवन करता हूँ (यः) = जो (चर्षणीनां राजा) = श्रमशील मनुष्यों के जीवन को दीप्त बनानेवाला है। (रथेभिः याता) = शरीररूप रथों से हमें प्राप्त होनेवाला है, अर्थात् उत्तम शरीररूप रथों को प्राप्त करता है। (अध्रिगुः) = अधृतगमन वाला है। [२] ये प्रभु ही (विश्वासां) = सब (पृतनानां) = शत्रुसैन्यों के (तरुता) = तैर जानेवाले हैं। वे प्रभु (ज्येष्ठः) = प्रशस्यतम हैं, (यः) = जो (वृत्रहा) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को विनष्ट करनेवाले हैं।
भावार्थ - भावार्थ- हम प्रभु का स्तवन करते हैं। प्रभु हमें वासनारूप शत्रुओं को पराजित करने में समर्थ करते हैं। प्रभु ही हमें उत्तम शरीररथ प्राप्त कराते हैं और हमारे जीवनों को दीप्त करते हैं।
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