Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 70 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 70/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पुरुहन्मा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्बृहती स्वरः - मध्यमः

    नकि॒ष्टं कर्म॑णा नश॒द्यश्च॒कार॑ स॒दावृ॑धम् । इन्द्रं॒ न य॒ज्ञैर्वि॒श्वगू॑र्त॒मृभ्व॑स॒मधृ॑ष्टं धृ॒ष्ण्वो॑जसम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नकिः॑ । तम् । कर्म॑णा । न॒श॒त् । यः । च॒कार॑ । स॒दाऽवृ॑धम् । इन्द्र॑म् । न । य॒ज्ञैः । वि॒श्वऽगू॑र्तम् । ऋभ्व॑सम् । अधृ॑ष्टम् । धृ॒ष्णुऽओ॑जसम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नकिष्टं कर्मणा नशद्यश्चकार सदावृधम् । इन्द्रं न यज्ञैर्विश्वगूर्तमृभ्वसमधृष्टं धृष्ण्वोजसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नकिः । तम् । कर्मणा । नशत् । यः । चकार । सदाऽवृधम् । इन्द्रम् । न । यज्ञैः । विश्वऽगूर्तम् । ऋभ्वसम् । अधृष्टम् । धृष्णुऽओजसम् ॥ ८.७०.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 70; मन्त्र » 3
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 8; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [१] (तं) = उस व्यक्ति को (कर्मणा) = कर्मों से (नकिः नशत्) = कोई भी व्याप्त नहीं कर पाता, अर्थात् उसके समान कोई भी महान् कर्मों को नहीं कर पाता, (यः) = जो (सदावृधं) = सदा से वर्धमान प्रभु को (चकार) = अपने अन्दर कराता है, अर्थात् जो प्रभु को अपने में धारण करता है। इस स्तोता को प्रभु की शक्ति प्राप्त होती है-इसके अन्दर प्रभु की शक्ति ही कार्य कर रही होती है। [२] (न) = [संप्रति] अब हम (यज्ञैः) = यज्ञात्मक कर्मों से (इन्द्रं) = उस प्रभु को ही उपासित करें, जो प्रभु (विश्वगूर्तम्) = सबसे स्तुति के योग्य हैं, (ऋभ्वसं) = महान् हैं। (अधृष्टं) = किसी से भी धूषत होनेवाले नहीं और (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (धृष्ण्वम्) = सब शत्रुओं का धर्षण करनेवाले हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु की उपासना हमें असाधारण [महान्] कार्यों को करने में समर्थ करेगी। प्रभु की शक्ति से शक्तिसम्पन्न होकर हम सब शत्रुओं का धर्षण कर पाएँगे।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top