ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
प्रेष्ठं॑ वो॒ अति॑थिं स्तु॒षे मि॒त्रमि॑व प्रि॒यम् । अ॒ग्निं रथं॒ न वेद्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्रेष्ठ॑म् । वः॒ । अति॑थिम् । स्तु॒षे । मि॒त्रम्ऽइ॑व । प्रि॒यम् । अ॒ग्निम् । रथ॑म् । न । वेद्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रेष्ठं वो अतिथिं स्तुषे मित्रमिव प्रियम् । अग्निं रथं न वेद्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्रेष्ठम् । वः । अतिथिम् । स्तुषे । मित्रम्ऽइव । प्रियम् । अग्निम् । रथम् । न । वेद्यम् ॥ ८.८४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 84; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
विषय - 'प्रेष्ठ अतिथि' का स्तवन
पदार्थ -
[१] मैं (वः) = सब के (प्रेष्ठम्) = प्रियतम उस प्रभु को स्तुषे =स्तुत करता हूँ। उस प्रभु को जो अतिथिम् = हमारे हित के लिये हमें निरन्तर प्राप्त होनेवाले हैं [अत सातत्यगमने ] । जो मित्रं इव प्रियम् = एक मित्र के समान प्रिय हैं - उत्तम प्रेरणाओं को देते हुए प्रीणित करनेवाले हैं। [२] उस प्रभु का मैं स्तवन करता हूँ जो अग्निम् अग्रेणी हैं-हमें निरन्तर आगे ले चलनेवाले हैं। रथं न वेद्यम् = इस जीवन-यात्रा में रथ के समान जानने योग्य हैं। प्रभु के द्वारा ही हमारी जीवन-यात्रा पूर्ण हो सकेगी।
भावार्थ - भावार्थ- प्रभु हमारे प्रियतम निरन्तर हमारे हित के लिये गतिवाले मित्र हैं। वे ही हमें आगे ले चलनेवाले व हमारी जीवन-यात्रा को पूर्ण करनेवाले रथ के समान हैं। इन प्रभु का ही हम स्तवन करें।
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