ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 91/ मन्त्र 1
ऋषिः - अपालात्रेयी
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडार्चीपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
क॒न्या॒३॒॑ वार॑वाय॒ती सोम॒मपि॑ स्रु॒तावि॑दत् । अस्तं॒ भर॑न्त्यब्रवी॒दिन्द्रा॑य सुनवै त्वा श॒क्राय॑ सुनवै त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठक॒न्या॑ । वाः । आ॒व॒ऽय॒ती । सोम॑म् । अपि॑ । स्रु॒ता । अ॒वि॒द॒त् । अस्त॑म् । भर॑न्ती । अ॒ब्र॒वी॒त् । इन्द्रा॑य । सु॒न॒वै॒ । त्वा॒ । श॒क्राय॑ । सु॒न॒वै॒ । त्वा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कन्या३ वारवायती सोममपि स्रुताविदत् । अस्तं भरन्त्यब्रवीदिन्द्राय सुनवै त्वा शक्राय सुनवै त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठकन्या । वाः । आवऽयती । सोमम् । अपि । स्रुता । अविदत् । अस्तम् । भरन्ती । अब्रवीत् । इन्द्राय । सुनवै । त्वा । शक्राय । सुनवै । त्वा ॥ ८.९१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 91; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
विषय - इन्द्राय शक्राय
पदार्थ -
[१] 'वारयति इति' (वाः) = शत्रुओं का वारण करनेवाली यह (कन्या) = [ कन दीप्तौ ] दीप्त जीवनवाली बनती है। (अव आयती) = काम-क्रोध आदि से दूर गति करती हुई यह (स्रुता) = [स्रु गतौ] मार्ग पर चलने के द्वारा (सोमं अपि अविदत्) = सोम को भी प्राप्त करती है- अपने जीवन में सोम का रक्षण करनेवाली होती है। [२] (अस्तम्) = अपने इस शरीररूप गृह को (भरन्ती) = सोम के द्वारा भरती हुई परिपुष्ट करती हुई (अब्रवीत्) = यह कहती है कि हे सोम ! (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिये (त्वा सुनवै) = मैं तुझे उत्पन्न करती हूँ। (शक्राय) = उस सर्वशक्तिमान् प्रभु की प्राप्ति के लिये (त्वा सुनवै) = मैं तुझे अपने में अभिषुत करती हूँ।
भावार्थ - भावार्थ- हम शत्रुओं का वारण करते हुए सोम का रक्षण करें। यह सोमरक्षण प्रभुप्राप्ति का साधन बनेगा। यह हमें भी 'इन्द्र व शक्त' बनायेगा।
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