ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
श॒र्य॒णाव॑ति॒ सोम॒मिन्द्र॑: पिबतु वृत्र॒हा । बलं॒ दधा॑न आ॒त्मनि॑ करि॒ष्यन्वी॒र्यं॑ म॒हदिन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव ॥
स्वर सहित पद पाठश॒र्य॒णाऽव॑ति । सोम॑म् । इन्द्रः॑ । पि॒ब॒तु॒ । वृ॒त्र॒ऽहा । बल॑म् । दधा॑नः । आ॒त्मनि॑ । क॒रि॒ष्यन् । वी॒र्य॑म् । म॒हत् । इन्द्रा॑य । इ॒न्दो॒ इति॑ । परि॑ । स्र॒व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शर्यणावति सोममिन्द्र: पिबतु वृत्रहा । बलं दधान आत्मनि करिष्यन्वीर्यं महदिन्द्रायेन्दो परि स्रव ॥
स्वर रहित पद पाठशर्यणाऽवति । सोमम् । इन्द्रः । पिबतु । वृत्रऽहा । बलम् । दधानः । आत्मनि । करिष्यन् । वीर्यम् । महत् । इन्द्राय । इन्दो इति । परि । स्रव ॥ ९.११३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 113; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - बलं दधानः आत्मनि
पदार्थ -
[शर्यणा - हिंसा] (शर्यणावति) = इस जीवन में, जिसमें कि निरन्तर रोगों व काम-क्रोध आदि शत्रुओं का हिंसन चल रहा है, (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (सोमं पिबतु) = सोम का पान करे। सोम का पान करता हुआ यह (वृत्रहा) = इस ज्ञान पर आवरणभूत काम आदि शत्रुओं का संहार करनेवाला होगा। (आत्मनि) = अपने में (बलं दधानः) = बल को धारण करता हुआ यह (महत् वीर्यं करिष्यन्) = महान् पराक्रम के कार्यों को करनेवाला होगा । सो, हे (इन्दो) = सोम ! तू (इन्द्राय) = इस जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (परिस्रव) = परिस्रुत हो । यह जितेन्द्रिय पुरुष तुझे प्राप्त करके इस जीवन संग्राम में शत्रुओं की शर्यणा [हिंसा] कर सके ।
भावार्थ - भावार्थ- जीवन संग्राम में सोम ही हमें विजयी बनाता है। इसका रक्षण हमें बल देता है और हम महान् पराक्रम के कार्यों को कर पाते हैं।
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