ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यत्सो॑म चि॒त्रमु॒क्थ्यं॑ दि॒व्यं पार्थि॑वं॒ वसु॑ । तन्न॑: पुना॒न आ भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । सो॒म॒ । चि॒त्रम् । उ॒क्थ्य॑म् । दि॒व्यम् । पार्थि॑वम् । वसु॑ । तत् । नः॒ । पु॒न॒नः । आ । भ॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्सोम चित्रमुक्थ्यं दिव्यं पार्थिवं वसु । तन्न: पुनान आ भर ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । सोम । चित्रम् । उक्थ्यम् । दिव्यम् । पार्थिवम् । वसु । तत् । नः । पुननः । आ । भर ॥ ९.१९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
विषय - दिव्य व पार्थिव वसु
पदार्थ -
[१] हे सोमवीर्यशक्ते ! (यत्) = जो (चित्रम्) = अद्भुत अथवा 'चित् र' ज्ञान को देनेवाला [= बढ़ानेवाला] (दिव्यम्) = मस्तिष्क रूप द्युलोक के साथ सम्बद्ध (वसु) = ज्ञान धन है, और जो (उक्थ्यम्) = रक्षा में विनियुक्त होने के कारण स्तुति के योग्य (पार्थिवं वसु) = शरीर रूप पृथिवी के साथ सम्बद्ध शक्ति रूप धन है, (तत्) = उस धन को (नः) = हमारे लिये (पुनानः) = पवित्र करता हुआ (आभर) = सर्वथा प्राप्त करा । [२] सोम से हमें दिव्य व पार्थिव दोनों धनों की प्राप्ति हो। इन दोनों धनों की प्राप्ति के लिये हृदय की पवित्रता रूप तीसरा धन है। वह भी इस सोम ने ही प्राप्त कराना है ।
भावार्थ - भावार्थ- सोम हमें मस्तिष्क में दिव्य धन [ज्ञान] प्राप्त कराये, शरीर में पार्थिव धन [शक्ति] को दे । तथा हृदयान्तरिक्ष में पवित्रता को करनेवाला हो [ पुनानः ] ।
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