ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
ऋषिः - दृळहच्युतः आगस्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
पव॑स्व दक्ष॒साध॑नो दे॒वेभ्य॑: पी॒तये॑ हरे । म॒रुद्भ्यो॑ वा॒यवे॒ मद॑: ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑स्व । द॒क्ष॒ऽसाध॑नः । दे॒वेभ्यः॑ । पी॒तये॑ । ह॒रे॒ । म॒रुत्ऽभ्यः॑ । वा॒यवे॑ । मदः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व दक्षसाधनो देवेभ्य: पीतये हरे । मरुद्भ्यो वायवे मद: ॥
स्वर रहित पद पाठपवस्व । दक्षऽसाधनः । देवेभ्यः । पीतये । हरे । मरुत्ऽभ्यः । वायवे । मदः ॥ ९.२५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
विषय - मरुद्भ्यः वायवे प्रदः
पदार्थ -
[१] हे (हरे) = सब रोगों का हरण करनेवाले सोम ! तू (दक्षसाधनः) = उन्नति को सिद्ध करनेवाला होकर (पवस्व) = हमें प्राप्त हो । (देवेभ्यः) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये तू हो । (पीतये) = [पा रक्षणे] तू रक्षण के लिये हो, रोगकृमियों का विनाश करके तू हमारी रक्षा करनेवाला बन। [२] (मदः) = आनन्द को देनेवाला तू (मरुद्भ्यः) = प्राणों के लिये हो, तेरे रक्षण से प्राणशक्ति की वृद्धि हो । (वायवे) = तू उस गति के द्वारा सब बुराइयों का गन्धन - हिंसन करनेवाले प्रभु की प्राप्ति के लिये हो ।
भावार्थ - भावार्थ- सुरक्षित सोम [क] उन्नति का साधक होता है, [ख] दिव्य गुणों का प्रापक होता है, [ग] रोगों से हमें बचाता है, [घ] प्राणशक्ति को बढ़ाता है, [ङ] अन्ततः प्रभु को प्राप्त कराता है ।
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